हमें जब से मुहब्बत हो गयी है...
जमाने से बगावत हो गयी है....!
दिवाने से बने हम घूमते हैं...
उसी की एक चाहत हो गयी है...!
जो रहता है अभी भी दिल में मेरे...
उसी से क्यूँ मसाफ़त हो गयी है...!
मिलीं नाकामियाँ उल्फ़त में हमको...
न जाने क्या कयामत हो गयी है...!
मुहब्बत की लगाता बोलियाँ वो ...
मुहब्बत भी तिज़ारत हो गयी है...!
नहीं अपनी हिफाज़त कर सके हम...
तुम्हारी ही इनायत हो गयी है...!
समन्दर सा मेरी आँखों में मचले...
न जाने क्या नदामत हो गयी है...!
दिलों में दूरियाँ बढ़ने लगी हैं...
खुदाया क्या रवायत हो गयी है...!
नहीं अब देखता मेरी तरफ वो...
ये कैसे उसकी ज़ुर्रत हो गयी है..!
पनाहों में तेरी हमको सुकूँ है...
तेरी 'पूनम' को आदत हो गयी है...!
***पूनम***
सुन्दर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना आज शनिवार 19 दिसंबर 2020 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंआप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
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