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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

सत्यं......शिवं.....सुन्दरम्.......








कुछ इंसान भी बड़े अजीब होते हैं....!
उनके किस्से तो....
उनसे भी अजीब होते हैं !
उनके लिए सत्य,शिव और सुन्दर...
सब वही है....
जो ये कहते हैं...!
ये केवल अपनी ही कहते है....
ये केवल अपनी ही सुनते है...!
ये दूसरों से केवल वही सुनते हैं...
जो ये उनसे सुनना चाहते हैं...!
इन्हें अपनी ही भावनायें दिखती हैं 
और दूसरों की भावनाएं भी
तभी देखते हैं.....
जब वो चाहते हैं ! 
दूसरों के चरित्र पर कीचड़ उछालने से 
बाज नहीं आते हैं ये.....!
लेकिन अपनी बात आते ही 
अपना रवैय्या ही बदल लेते हैं !
खुद के अच्छा होने का अहं..
दूसरों के बुरा होने के एहसास से 
कई - कई गुने ज्यादा है...! 
हर वक्त उंगली दूसरों पर..
कभी अपने पर नज़र नहीं जाती....!
ऐसा नहीं कि उन्होंने इस संसार में 
कोई भी 'काम' छोड़ा हो....!
लेकिन आज वो इन सबसे 
खुद को ऊपर उठा मानते हैं....!
आज उनमें से कुछ लोग खुद को
ईश्वरत्व के समकक्ष देखते हैं..!
आप भी अपने इर्द-गिर्द देखिये....
इनमें राम कहीं भी नहीं मिलेंगे...
हाँ....
कुछ कृष्ण रास रचाते मिलेंगे.....!
और ऐसे ही कुछ शिव तांडव करते हुए...!!






बुधवार, 12 दिसंबर 2012

जीना......







जिंदगी के कुछ क़र्ज़....
उतरते ही नहीं कभी-कभी...!
कितने सपने बेचे....
कितने दर्द लिए...! 
कुछ जाने...
कुछ अनजाने....
एहसास भी कम किये....! 
कुछ सुकूं तो मिला.. 
जीने के लिए....!
लेकिन जीने के लिए 
अपना होना ज़रूरी है.....! 
बस वही बच गया है अब.....! 
हाँ......
मैं अब खुश हूँ......!!





मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

चाहतें.....






अक्सर होता ऐसा ही है...
चाहतें किसी की होती हैं...
निशाना पे भी कोई होता है  
लक्ष्य साधा जाता है उसी पे
लेकिन...
बूमरैंग की तरह निशाने को घुमा कर 
लगाया कहीं और जाता है.....!!
लग गया तो जश्न....
न लगा कर्म-धर्म,संस्कार का उपदेश....!
ये इंसान भी न....!!
हर बात को अपनी तरह से 
घुमा फिरा के बोलता है...!
ईश्वर करे भी तो क्या...?
अपनी ही बनायीं रचना से
हारा हुआ महसूस करता होगा...
बुद्धि दे कर इंसान को 
उसी बुद्धि के आगे खुद को
छोटा महसूस करता होगा...
क्यूँ कि इंसान इसका प्रयोग 
अपने किये को 
सही साबित करने में 
ज्यादातर लगाता रहता है...!
अब ईश्वर कर भी क्या सकता है...
सिवाय आश्चर्य के...!!







रविवार, 2 दिसंबर 2012

वजूद........






तेरे होने के एहसास को 
इस तरह जिया है मैंने
कि अब अपने होने का एहसास ही
खो गया है मुझसे कहीं...!
अब एहसास है मुझे 
बस मेरे वजूद का,
और नहीं भी है....
क्यूँ कि वो मिल गया है..
तेरे वजूद के संग...!!



शनिवार, 24 नवंबर 2012

नए एहसास....




कुछेक शेर....
नए एहसास....
नए रंग.....
नए हम....
नए तुम......






करते है बात अपनी..........मुझे आज़माते हैं....
कैसे नादाँ है....रखते हैं राज़ भी और खुद ही बताते है !!
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मोहब्बत का कभी भी सौदा न  किया हमने ....
ये फितरत थी तुम्हारी दे दिया दिल हर हसीना को !!
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झूठ की बुनियाद बहुत कमज़ोर होती है यारों..
ज़रा सी डगमगाई तो महल तक टूट जाते हैं...!!
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मेरे अश्कों के लिए था तेरा दामन ही बहुत
तुझको ये भी तो बहुत नागवार गुज़रा है....!!
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वफा की पाकीजगी पे हम शक नहीं किया करते...
तुम बेवजह मुझे इलज़ाम दिए जाते हो...!!
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यकीं तुम पर मुझे जाना...कभी खुद से जियादा था...
मगर कम्बखत दिल मेरा बस इस धोखे में आ गया !!
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समझते जाते थे हम अब तक तुम्हारी सारी ख़ामोशी 
मगर तुमने ही दे दी है.......जुबां ज़ज्बात को मेरे..!!! 





फितरत.....











           मुहब्बत की तिजारत हम नहीं किया करते....

           ये फितरत थी तुम्हारी दे दिया दिल हर हसीना को !

           भूल जाना...भुला देना...बहुत आसां है कह देना... 

           मगर क्या भूल पाए तुम...अपने गुजरे माज़ी को !!





शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

मेरी नज़र में.......






वल्लाह न कहू तो तुझे और क्या कहूँ....
बन कर गज़ल तू मेरे जेहन में उतर गया...!

चाहा था लाख तुझको भुला दूँ...मगर नहीं
तस्वीर बन के मेरी नज़र में उतर गया....!

तेरा जमाल..तेरी मुहब्बत का शुक्रिया...
जब से मिला है मुझको..तू मुझमें ठहर गया..!

औरों का न ख्याल है...न अपना अब रहा...
बस तू ही नज़र आता है...जब भी जिधर गया...!

ए मेरे सनम..मेरे खुदा...तुझको क्या कहूँ..
तू रूह बन के मेरे जिसम में उतर गया.....!






मंगलवार, 20 नवंबर 2012

तितली या कठपुतली मत बनिये -महादेवी वर्मा


खंडवा ( मध्य प्रदेश ) के शासकीय कन्या महाविद्यालय में दिया गया प्रखर चिंतक--कवियत्री महादेवी वर्मा का यह व्याख्यान आप को साझा कर रही हूँ ! इसके लिए मैं आभारी हूँ श्री सुनील दत्ता जी  और  "लोक गंगा" पत्रिका की जहाँ से मैंने इसे प्राप्त किया .......



तितली या कठपुतली मत बनिये -महादेवी वर्मा

          मुझे पता नहीं था कि आप के बीच आना है दिन भर घूमती रही अन्त में यहाँ आई हूँ तो बहुत थकी हूँ | आप से बहुत बात करना चाहती थी लेकिन बंधुओ ने मौका नहीं दिया | अब आप से इतना कहना चाहती हूँ कि  भारत का भविष्य आपके हाथ में है , लड़को के हाथ में नही है हमारे यहाँ लड़की जन्म लेते ही पराई हो जाती है | सब कहते है , अरे , लड़की हो गई, जो सुनता है , आह कर के रह जाता है और जब वह बड़ी होती है तो सब कहते है , पराए घर का धन है , याने वह धन है , सम्पत्ति है , जीवित व्यक्ति नहीं है , सामान है , और अगर किसी ने दहेज कम दिया तो उसे जला देते है , सो हमारे यहा लड़की को बहुत सहना होता है |
                       लेकिन हमारी संस्कृति ने हमें बहुत शक्ति दी है | देखिये , ब्रह्मा के चार मुँह है , सो कोई नहीं जानता उनको क्यों बनाया क्योंकि चार मुँह से हो सकता है , चार तरह की बात करते रहे होंगे | बनाया तो सरस्वती को है | सरस्वती एक बात करती है | हमारे ज्ञान की अधिष्ठात्री है |हाथ में वीणा लिए हुए है , पुस्तक लिए हुए है , अक्षमाला लिए हुए है | समय , हर क्षण का प्रतीक है वो | और समय के लिए सृजन का प्रतीक है |
                               आप देखिये , ऐश्वर्य मिलता है घर मिलता है , लेकिन अगर घर में पत्नी न हो , बहन न हो ,माँ न हो तो कैसा घर है | वास्तव में वह लक्ष्मी है | शिव उस के मस्तक पर है | श्वेताबरा  है , सब को मंगलमय रखती है और जब आसुरी शक्तियाँ ध्वस्त करने लगती है तो वह आसुरी शक्तियों पर आरूढ़ होती है , तब वह सिंहवाहिनी होती है , दुर्गा होती है | बड़ी शक्ति है उसमें | प्रारम्भ में संस्कृति ने हमे महत्व दिया , लेकिन समाज ने धीरे -- धीरे हमारा महत्व छीन लिया , कब छीन लिया ? जब आप कमजोर बनी , सिर्फ लक्ष्मी रह गई , सम्पत्ति बन गई |
                                           आप जो नए युग की नारी हैं , आप को बड़ा काम करना है | अपनी शक्ति को पहचानना है | सम्पत्ति होना अस्वीकार कर दो | सामान है क्या आप ? सब आप को सामान मानते है और अगर पति न रहे , तो जैसे खिलौना फेंक देता है बच्चा , ऐसे स्त्री को फेंक देते है | कानून ने हमें बहुत अधिकार दिए है | लेकिन कानून पात्रता नही देगा | पात्रता आप से आएगी | हमारा युग बड़ा कठिन था | हमे लड़ाई लड़नी पड़ी | पुलिस की लाठियों के सामने , गोलियों के सामने खड़े रहे और फिर पढ़ने के लिए चारों ओर भटकते रहे | आप को सब सुविधायें  है | इसलिए आप देश को बनाइए जैसा  आप बनाएगी , वैसा देश बनेगा | तो आप इस भारत की धरती की तरह , जैसे सीता को भूमिजा कहते है , वैसे भूमिजा है आप...आप सीता बनिये | मान लिया कि  राम रक्षा करने गये थे | वन में चले गये थे कि रक्षा करेंगे , लेकिन रावण के यहाँ  रक्षा कौन करता था सीता की ? वह तो राम लक्ष्मण नहीं थे | उन्हें पता नही था | ढूढ़ रहे थे | सीता ने अपने वर्चस्व से , अपनी शक्ति से अपनी रक्षा की | रावण उसको अपने प्रासाद में भवन में नही ले जा सका | अशोक वाटिका में रखा |
                               और उसकी शक्ति देखिये | अग्नि परीक्षा दी उसने | और उसका तेजस्वी रूप देखिये | जब राम ने कहा , लव -कुश बड़े हो और राम , लव -कुश से हार गये तो उन्होंने सीता से कहा कि अब अयोध्या की महारानी होइए और अयोध्या चलिए | सीता ने इनकार कर दिया | राम ने कहा प्रजा के सामने सिर्फ परीक्षा दे दीजिये | अस्वीकार कर दिया उसने |
                          कोई माता अपने पुत्रो के सामने परीक्षा देती है ? अपने सतीत्व के लिए ? नहीं देती है | तो सीता ने अस्वीकार कर दिया और राम ने जब बहुत कहा तो सीता ने धरती में प्रवेश कर लिया |
अब उस की शक्ति देखिये | वो चाहती तो राम के हाथ पाँव जोडती , अयोध्या की रानी हो जाती , लेकिन उसने नहीं होना चाहा | ऐसा पति जो किसी के कहने से ,पति का कर्तव्य भूल जाए , उसके साथ क्यों जायेगी ? नहीं गई वह | सो मैं बार -बार कहती हूँ | सीता बनो , तुम्हारा उत्तर होना चाहिए , हम तो सीता है ही हम तो धरती की पुत्री है | स्वंय शक्ति रखती है | वह आप का घर बनाती है | आपको सुख देती है | आपको मंगलमय बनाती है | कितने रूपों में पुरुष को सहयोग देती है | वह पति को कितना आत्मत्याग सिखाती है | पुत्र को कितना तेजस्वी बनाती है | वह तो मानव जीवन की निर्मात्री है | जीवन की श्रुति है वह | बड़े से बड़ा व्यक्ति भी उसकी गोद में आएगा , चाहे राम हो कृष्ण हो बुद्ध हो, किसी माता की गोद में किसी माता के आंचल की छाया में बड़ा होगा | उसकी आँखों के सपने अपने आप को देखेगा | वह उसे अंगुली पकड कर चलना सिखाएगी | आप अपने को छोटा मत समझिये |
                               आपके भी कुछ कर्तव्य है | हमने देखा , आधुनिका बनने के लिए , लडकियाँ घंटे भर घुंघराले बाल बनाएगी | आँखों में काजल लगाएगी , होठ रंगेगी , चेहरा रंगेगी | एक जगह हम गये तो रंगे चेहरे वाली लडकियाँ सामने बैठी थीं | हमने कहा , पहले मुँह धोकर आओ , हम तो पहचान नही पाती आप को |
                               आदमी तो आदमी है न | वह आपको कठपुतली बना देता है | आप लड़के को कोई खिलौना दे दीजिये तोड़कर देखेगा | लेकिन लड़की घर बसाएगी , गृहस्थी बसाएगी , घरौदा बनाएगी , उसमें गुड्डे -- गुड्डी बैठाएगी | उनका व्याह रचाएगी , यानी यह सब कुछ जानती है | छोटी लड़की भी | और लड़के को देखिये तो उसकी टांग तोड़ देगा , सर फोड़ देगा | पुरुष का स्वभाव ही आक्रामक है | अगर स्त्री उसे संयम नहीं सिखाएगी तो फिर वह संयम से नही रहता || हमारे युग के एक बड़े व्यक्ति ने कहा कि राष्ट्र स्वतंत्र नहीं होगा , यदि उसकी नारी जो शक्ति है वो स्वतंत्र नही होगी | जितनी कला है वह आप के पास है | जितनी विद्या है , वह आप के पास है | आप तितली या कठपुतली मत बनिये | साक्षात शक्ति स्वरूपा हैं आप | आप शक्ति को पहचानिए और देश को बनाइए | मेरी मंगलकामना आपके साथ है |





शनिवार, 3 नवंबर 2012

रिश्ते.....







                                                         तन की आवश्यकता तो कहीं भी पूरी की जा सकती है...किन्तु इंसान भावनात्मक तौर पर जुड़ना चाहता है...वर्ना हर रिश्ता समझौता है..! नज़दीक रह कर भी आदमी आदमी को नहीं पहचानता...हाथ मिलते हैं....शरीर भी मिलते हैं......पर दिल.....???
दिल नहीं मिलते !
                                                अगर फूल में रंगत हो, कोमलता हो, ताज़गी हो लेकिन खुशबू न हो...तो वो फूल कैसा....????
                     संबंधों में मधुरता और एक-दुसरे के लिए सम्मान ज़रूरी है तभी सम्बन्ध फलते फूलते हैं और ताउम्र चलते हैं...! झूठ, दंभ, दिखावा, बड़बोलापन और अपशब्दता किसी भी सम्बन्ध को बेवक्त और बेमौत मारने के लिए काफी है....!!



बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

उम्मीद.......






वादे भी कीजिये  ओ मुकर कर के देखिये 
जब बात न बने तो बदल कर के देखिये  !


माना  कि प्रेम पलता  नहीं  सबके  दिलों  में
फिर भी किसी को दिल में बसा कर के देखिये !

जब आएगा सैलाब तो सब बह ही जायेगा

धारा को अपनी ओर पलट कर के  देखिये !

इस दिल में रह रहा था जो अब तक उधार में

उस  को  ही  खरीदार  बना  कर  के  देखिये !

जो ख्वाब तेरे टूट गए.....फिर  न  जुड़ेंगे....
कुछेक  नए  ख्वाब संजो कर तो  देखिये...!

जन्नत कहीं नहीं है...वो दिल में ही पल रही

कुछ हंसिये खुद भी और हंसा कर के देखिये !

मिलने की अब उम्मीद न करिये रकीब से 

आँखों  में  उसका  नूर बसा  कर के देखिये...!





सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

स्वप्न......






जागते हुए सोना
सोते हुए जागना
बस ऐसी ही होती है
हमारे मन की स्थिति...! 
सूरज कब उगा ,
किधर से उगा...
और कब,
किस तरफ डूब गया...!
चाँद निकला तो...
मगर रौशनी थी या नहीं...
देख ही नहीं पाते अक्सर हम ही...!
रौशनी दिखी भी कभी... 
तो कहीं दूर.......
किसी दूसरे के आँगन में...!
सूरज चमका तो ज़रूर...
मगर किसी दूसरे की आँखों में...!!
हमारी बोझिल आँखें 
अपने आप में,
अपने आस-पास में...
रौशनी देख ही नहीं पातीं...!
चाँद की शीतलता 
जो दूसरे के आँगन में पाई...
अपने ही आँगन में वो..
हमें छू तक नहीं पाती...!!
वास्तविकता तो ये है कि 
जो नजदीक का देख सके... 
हमने वो दृष्टि ही नहीं पाई...!!
नज़रें अपने से कहीं दूर 
क्षितिज में गड़ाए बैठे रहते हैं..
वहाँ बादलों में उभरते हुए चेहरों में 
सब नजर आता है...
कुछ स्मृतियाँ उभरती हैं...
कुछ ध्वनि-प्रतिध्वनि भी 
सुनाई देने लगती है 
और फिर नजदीक के 
सारे चेहरे लुप्त हो जाते हैं..
पास की कोई ध्वनि सुन सकें 
वही कान बहरे हो जाते हैं.....!
जो रिश्ते...
जो सम्बन्ध...
हमीं ने बनाए थे कभी  
उन्हीं से बू आने लगती है 
और सबके सब अपनी ही 
आँखों में धूमिल पड़ जाते हैं..!
उनका अपनत्व विलुप्त हो जाता है 
हमारे लिए ही...
और अपने ख्वाब ही 
सच्चे लगने लगते हैं हमें...!
फिर जन्म होता है 
एक नए सूरज का...
एक नए चाँद और सितारों का...!
मगर कब तक...??
अपनी ही बनायीं पूरी एक दुनिया
एक तरह से हम खुद ही  
नकार देते हैं पूरी तरह से....!
अपने ख़्वाबों की दुनिया ही 
हमें दैविक लगने लगती है...!
आस-पास की स्तुतियाँ
मंत्रोच्चारण भी...
उस दैविक मंगलाचरण के आगे 
फीके पड़ जाते हैं...!
और फिर इस संसार और संबंधों से 
मुंह मोड़ना बहुत आसान हो जाता है !
क्यूँ कि वहाँ...
दूर में बहुत कुछ है 
जो हमें लुभाता है !
एक दिवास्वप्न जो 
जीने का एहसास तो दिलाता है
लेकिन जिया नहीं जा सकता...!
बस ऐसे ही.. 
जीवन बीत जाता है हम सबका...!
और फिर इसका सारा दोष 
हम अक्सर दूसरों को...
परिस्थितियों को...
कभी किस्मत को...
और कुछ न मिले तो... 
भगवान को ही दे देते हैं...!!!






"जो बीबी से करते हैं प्यार.......वो प्रेस्टिज से कैसे करें इनकार.."






कल मूवी हॉल में.. 
एक बहुत पुराना विज्ञापन देखा
प्रेस्टीज प्रेशर कुकर का ...
सुनते ही कुछ लाइनें मन में 
ट्यूब लाईट की तरह जल उठीं....!

शायद आपको भी याद हो....!!
समय और परिस्थिति के साथ 
बहुत सी बातों के मायने बदल जाते हैं...!!


"जो बीबी से करते हैं प्यार
वो प्रेस्टिज से कैसे करें इनकार.."

शायद इसीलिए आज तक
तुम प्रेस्टिज नहीं खरीद पाए...!
यूँ तो मेरे बारे में हमेशा ही 
झूठ बोला है तुमने सभी से
लेकिन ये एक झूठ... 
तुम खुद से भी नहीं बोल पाए...!!




शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

सन्नाटा......




आधी रात की तन्हाई....
बड़ी अजीब होती है !
बस ! हम ही हम
यहाँ कोई दूसरा नहीं...!
खुद कहते हम...
सुनते भी हम..!
एक अजीब सा सन्नाटा 
भीतर-बाहर...!
शरीर-मन का अजीब सा संयोग...!
जो सिर्फ 
और सिर्फ हम ही 
महसूस कर सकते हैं...!
और कोई नहीं...!
कोई भी नहीं.......



मंगलवार, 25 सितंबर 2012

द्विविधा.....










बड़ी द्विविधा में हूँ आजकल......
किसे स्वीकार करूँ.....???
एक वो 'तुम' हो 
जिसे मैं अब तक जानती थी,
पहचानती थी...!
आज वो कहीं गुम हो गया है 
तुम में....तुम्हीं में....! 
और आज एक वो 'तुम' हो...
जो उस तुम से अनजान 
अपने जीवन की सारी सच्चाइयाँ 
अपने आप में समेटे मेरे समक्ष है.......!
हमेशा ही तुम्हें एक सहारे की खोज रही...
कभी इंसान,कभी भगवान...
घर,बाहर,अपने शहर से दूसरे शहर...
अपने-पराये...
सब में सहारा खोजते हुए 
तुम इतनी दूर निकल गए 
कि अब वापस आना भी  
मुमकिन नहीं रहा...!
शायद तुम ये अच्छे से जान भी गए हो...!
तभी तो आज 
अपने ही अहं को सबसे बड़ा 
सहारा बना लिया है तुमने !
इसमें मैं कहाँ हूँ तुम्हारे साथ.....??
इस 'तुम' को मैं जानती नहीं....
न ही पहचानती हूँ...!
और 'वो तुम' रहे नहीं...
कभी सोचूँ भी तो...... 
बोलो किसे स्वीकारूँ....???

(लेकिन ये द्विविधा मेरी अपनी है....तुम्हारी नहीं....!!)





रविवार, 23 सितंबर 2012

चेहरे.......





प्यार बंधन उन्हें ही लगता है
जो खुद प्यार पे बंधन लगाते हैं...!
तोहमतों की बातें भी वही करते है
जो दूसरों पे अक्सर तोहमतें लगाते हैं...!!
जो प्यार करते हैं वो कहते नहीं जनाब....
आप तो सारे जहाँ में ढिंढोरा पीट के आते हैं....!!!








मंगलवार, 18 सितंबर 2012

दुआओं में असर हो.....







ये चाह तमाम लोग तेरी रहगुज़र में हों...
अल्लाह करे  तेरी  दुआओं में असर हो !

तू दे दुआ जिसे वो करे तुझ पे भी असर 
मौला की खैर हो....यूँ  दुआओं में असर हो !

यूँ  तो  निगाहबान रहा मुझपे  भी  खुदा 
फिर भी ये चाह तेरी दुआओं में असर हो !

माना कभी रहा न तेरा मुझसे *इख्तिलाफ
फिर न हो मुलाक़ात.....दुआओं में असर हो !

नज़दीक आते आते हो गयीं  हैं  दूरियां...
हो **इल्तियाम-ए-दिल ये दुआओं में असर हो..!

*मतभेद
**दिल के ज़ख्म भरना 








सोमवार, 17 सितंबर 2012

राज़.......जो अब राज़ न रहा....








कुछ राज़ कहे हमने...उनसे यूँ अलहदा..
निकले तो साथ थे मगर राहें  हुई जुदा !!

कुछ राह वो थे भूले कुछ हम भी खो गए
नज़रें तो दूर तक गयीं मंजिल हुई जुदा !!

तेरी  निगेहबानी  का  क्या  शुक्रिया करूँ 
रुसवाइयां जो तूने दीं वो भी थीं अलहदा !!

माना ये राह-ए-जिंदगी सिखलाती है सबक
तूने जो दिया है सबक वो सबसे अलहदा !!

हमने किया यकीन था तुझपे बहुत मगर
न तुझको ही यकीन रहा खुद पे ,या खुदा !!








रविवार, 16 सितंबर 2012

चेहरे पे चेहरा......






जब हम नहीं तैयार तो क्या कर सकेंगे वो
रुसवा करेंगे वो  हमें....बस ! ये करेंगे वो !

उनकी ज़बांदराजी  पे  न था शक  हमें कभी
अब तक किया यही है, तो क्या अब करेंगे वो !

चेहरे पे एक चेहरा उनका और है जनाब 
अपने ही अक्स से नज़र चुरा रहे हैं वो !

यूँ तो गीले शिकवे हमें भी उनसे  हैं  बहुत
गर खोल दी जुबां तो न खुद सह सकेंगें वो !

अब क्या कहें किसी से हम उनके विसाल-ए-यार
अपने शहर में थक गए....गए दूजे शहर में  वो !

उनकी  निगेहबानियाँ....कुछ मुझपे यूँ रहीं  
बदनाम हमें करेंगे तो  क्या खुश रहेंगे वो !

कहते हैं जुर्म करना और सहना भी है गुनाह
अपने - किये गुनाह पे अब  क्या  कहेंगे वो ??

खुद को समझते है वो पाक साफ़ आजतक 
खुद कितनी तोहमतें मुझपे लगाते रहे हैं वो !






सोमवार, 10 सितंबर 2012

रूहें जब मिल जाती हैं.....







बागों में फूलों के रंग
जब खिल खिल जाते हैं...
तितलियाँ गुनगुनाती हैं
मचल मचल जाती हैं..

रात जितनी गहरी होती है
चाँद उतना ही जगमगाता है
चांदनी मुस्कुराती है
रौशनी उतना ही खिलखिलाती है


साँसे जब जब लयबद्ध
हो जाती हैं खुद ब खुद
ये धरती भार विहीन हो
अपनी ही धुरी पर नाचती है

सूरज जब आँख मलते हुए
जगाने आ जाता है तो...
ओस शरमाते हुए
दूब के आँचल में छुप जाती है


और रूहें जब रूहों से
मिल जाती हैं तो...
जिस्म से एक
सुगंध सी बिखर जाती है....!!


११-०९-२०१२
बस अभी अभी
***पूनम सिन्हा***

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

आज के परिवेश में कृष्ण,राधा और मीरा......




आज के परिवेश में कृष्ण,राधा और मीरा......
            


                                     कई दिनों से सोच रही थी कि इस विषय पर कुछ लिखूं...अक्सर लोगों को उदाहरण देते सुनती हूँ, देखती हूँ या यूँ समझ लीजिए कि एक तरह से खुद और दूसरों के प्रेम की तुलनात्मक व्याख्या करते देखती हूँ  कृष्ण-राधा के प्रेम से और मीरा के प्रेम से....!! समझ नहीं आता ये ऐसा क्यूँ कर करते हैं....??  प्रेम प्रेम होता है और हमेशा अपनी तरह का होता है....! न राधा ने मीरा की तरह किया...न मीरा ने राधा की तरह...और न ही कृष्ण ने किसी की तरह....! फिर हम ही क्यूँ सारा समय अपने या किसी और के प्रेम को उनसे या फिर किसी से मिलाने में लगे रहते हैं...??  हम अपनी तरह प्रेम क्यूँ नहीं कर सकते....??  एक इंसान की तरह....! शायद हमारे पास इस बारे में सोचने का वक़्त बहुत ज्यादा है क्यूँ कि जो प्रेम करता है वो बस प्रेम ही करता है...खुद को या किसी और को किसी से मिलाता नहीं...! दरअसल उसके पास वक्त ही नहीं रहता इन सब बातों के लिए...!!
                                                                         बेचारे कृष्ण-राधा भी परेशान होंगे कि वो क्या कर गए...जो आज का इंसान अपने प्रेम की तुलना उनके प्रेम से करता है....! आप अपने अगल-बगल नज़र डालेंगे तो देखने में आएगा कि युवा ज्यादातर लैला-मजनू और रोमियो-जूलियट की बातें करते हैं...वैसे भी वो इन सब उदाहरणों में नहीं उलझते क्यूंकि जब वो प्रेम करते हैं तो उनका केंद्र एकमात्र उनका प्रेम ही होता है !! फिर इस तरह के प्रेम की बातें करता कौन है ?? समाज में ज्यादातर कृष्ण-राधा को उदाहरण स्वरुप कौन प्रस्तुत करता है..??  हाँ...याद आया...सबसे ज्यादा हिम्मत तो प्रो.बटुकनाथ और उनकी शिष्या जुली ने दिखाई जो इस प्रेम के ज्वलंत उदाहरण हैं....बाकी सब चोरी छुपे करते हैं और केवल बातें ही करते है इस तरह के प्रेम की...! एक ऐसा प्रेम जिसके बारे में उन्होंने सुना है, कल्पना की है....जिसे वो जी न सके और उसे ही जीने का ख्वाब देखते हुए बाकी की जिंदगी बिता रहे हैं...!!  फिर खुद को समझाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है तो कृष्ण-राधा क्या बुरे हैं...! अब शादीशुदा स्त्री या पुरुष आज के दिन में छुपा के ही प्रेम करेंगे न ! तमाम तरह के बंधन हैं उनके ऊपर..पारिवारिक...सामाजिक..सामाजिक प्रतिष्ठा..और भी न जाने कितने !! अब इतनी बातों को दांव पे तो लगा नहीं सकते...बस अपने आप को justify करने का और खुद को gilt से निकालने का एक सरल...सहज...और उत्तम तरीका है कि इस प्रेम को राधा-कृष्ण से जोड़ दीजिए, अपने इस प्रेम को आध्यात्मिक दिखाइए,बताइए,खुद को समझाइये और खुद को हर बात से मुक्त कर लीजिए...!
                                             जैसा कि हम जानते हैं कि राधा और मीरा दोनों ही विवाहित थीं और अपने प्रेम और भक्ति ( मीरा के लिए ) के प्रति आस्था और समर्पण था उनमें..! कोई चोरी न थी...न ही परिवार के लोगों से छलावा....मीरा अपने साथ कृष्ण की मूर्ति ले कर ही ससुराल गयीं थीं और राधा घर के कामकाज के बीच में ही मुरली की धुन सुन कर चल देती थीं न कि चोरी-चुपके या किसी से छुपा के...!! आज जब राधा-मीरा के प्रेम की बात होते देखती हूँ लोगों के बीच तो समझ नहीं पाती हूँ कि अपने प्रति हम कितने सच्चे हैं...अपने प्रेम के प्रति कितने सच्चे हैं.....और अपने संबंधों के प्रति हम कितने सच्चे हैं....! हमें क्या हक है कि हम कृष्ण,मीरा और राधा से तुलना करें अपनी जबकि हमारी सच्चाई कुछ और ही है...उनसे एकदम भिन्न...! लेकिन हम भी मजबूर हैं अपने लिए तो उदाहरण भी एकदम ऊंची श्रेणी का ही चुनते हैं ! 
                                                      देखा जाए तो उस समय भी तो इन संबंधों को मान्यता नहीं दी जाती थी....न दी गयी थी....! इन प्रेम प्रसंगों में भी कई तरह की बातें आती हैं सामने...मीरा और राधा के साथ उनके घर वालों का सलूक (अगर ये बात सच है तो ) उदाहरण है इसका..!  फिर भी देखा जाए तो कृष्ण ने कभी भी चुपके से बांसुरी नहीं बजायी थी और न ही चोरी से रास ही रचाया था राधा और गोपियों के संग...उनकी मुरली की तान थी ही इतनी मोहक कि लोग खींचे चले जाते थे...क्या पशु-पक्षी क्या इंसान...!! अब इसमें बेचारी राधा और गोपियां बेबात बदनाम हो गयीं...!! और अगर ये बात सच है तो उस समय जो हाल उन सबका हुआ था अगर आज भी वैसी ही परिस्थिति हो जाये तो आप भी वैसा ही करेंगे शायद!
                                                            अब आप कल्पना कर के देखिये कि आपका पति या आपकी पत्नी आपको घर में छोड़ कर किसी अन्य पुरुष या स्त्री के साथ नृत्य समारोह में जाए और रात में देर से घर आये तो क्या आप उसे राधा या कृष्ण मान कर घर में बड़े प्रेम से आने देंगे...और कितने दिन तक ?? अब आप कहेंगे कि उनकी बात अलग थी...उनके प्रेम का स्वरुप अलग था लेकिन आप कैसे अपने पति या पत्नी के प्रेम के स्वरुप को पहचानेंगे...क्या आप में भी वो दिव्य दृष्टि है जिससे कि आप उनके प्रेम को सही मान कर स्वीकारे या गलत मान कर नकार दें...! यदि आपकी पत्नी या पति अपने पहले प्रेमी की फोटो लेकर के आपके बेडरूम में लगा दे और सारा समय उसी में लीन रहे तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी.....!! अब आप ही सोचिये कि आज अगर सचमुच में भी आकर कृष्ण बांसुरी बजाएं और आपकी पत्नी अभिभूत हो कर सब काम-धाम छोड़ कर रोज रासलीला के लिए चली जाए घर से...और लौट के जब आये तो आप उसे बड़े प्रेम से स्वागत करेंगे.....!....फिर ऐसी परिस्थिति में क्यूँ आज प्रेमी से मिल कर लौटी पत्नी आप को राधा नहीं लगेगी...या लगती है...!
                                   भले ही प्रेम का स्वरुप मान कर आप राधा कृष्ण की पूजा करें...लेकिन सही मानिये तो ये आपसे भी संभव नहीं होगा....! अब ऐसे में फिर कोई उपाय नहीं बचता कि इसतरह के प्रेम को  समाज से...घर वालों से छुपाया जाए क्यूँ कि इसके सार्वजानिक होने से आपकी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा पर आंच आती है...और यहीं पर हम राधा-कृष्ण का उदाहरण देते नज़र आते हैं क्यूँ कि इस तरह के प्रेम के लिए हमें उनसे बेहतर उदाहरण नहीं मिलता जिससे हम अपनी नज़र में ऊँचे बने रहें और समाज की नज़र में साफ़-सुथरे...! आज हम, हमारी परिस्थिति और हमारी मन:स्थिति उनसे सर्वथा और सर्वदा भिन्न है फिर भी बड़ी आसानी से एक तरह से हम अपने आप को justify कर लेते हैं और gilt से भी बच जाते हैं....लेकिन जिन कृष्ण,राधा और मीरा की बात करते हम नहीं आघाते उनकी तरह के प्रेम से उतनी ही दूर होते जाते हैं क्यूँ कि हममें उनकी तरह समाज और परिवार की अवहेलना सहने की शक्ति ही नहीं होती है...! बड़े मज़े की बात तो यह है कि किसी दूसरे के प्रेम को देखने में हमारी यही उदार सोच संकीर्ण हो जाती है ! असल में हम अपने अलावा किसी और में कृष्ण,राधा और मीरा देखने की दृष्टि ही नहीं पा सके....संकुचित दृष्टि और सीमित सोच..! क्यूँ नहीं राह चलते एक नटखट बालक को ( जिसे हम बदमाश कहते हैं ) किसी बालिका ( गोपिका ) का दुपट्टा खींचने पर कृष्ण की उपाधि दे पाते...पास पड़ोस की आंटी जी के यहाँ से अपनापन में कुछ भी उठा लेने पर एक बच्चे में ( जिसे हम असभ्य कहते हैं ) बाल कृष्ण का रूप नहीं देख पाते....अपने प्रेमी से मिल कर लौटी अपनी ही पत्नी में ( जिसे हम बदचलन कहते हैं ) राधा सा निश्छल प्रेम का स्वरुप नहीं देख पाते...???  दरअसल हमने अपने जीवन में दोहरे मापदंड बनाये हैं...अपने लिए कुछ और और दूसरों के लिए कुछ और ...!! लेकिन जब इसी तरह की परिस्थिति हमारे अपने सामने आये तो मीरा,राधा-कृष्ण ने अपने प्रेम के सारे दरवाजे हमारे लिए खुले छोड़ दिए हैं...!

                                                                  
                                           प्रेम के उदाहणार्थ हम बात करते हैं कृष्ण,राधा और मीरा की....!! हमें मालूम है कि इस संसार में मीरा की भक्ति सर्वोपरि है...एक ऐसी भक्ति जिसमें अपने आराध्य के लिए सर्वस्व समर्पण की उद्दाम शक्ति और कामना थी....जिन्हें कृष्ण भक्ति और प्रेम के आगे कुछ भी नहीं सूझा...न परिवार...न संसार....!     कहीं कोई छुपाव-दुराव नहीं था...न परिवार से...न ही संसार से ! एक निश्छल...स्वच्छ...निर्बाध भक्ति और प्रेम...! कितने कष्ट उठाये मीरा ने कृष्ण-भक्ति और प्रेम ( हम ईश्वर से भी प्रेम ही करते हैं ) के लिए...ये किसी से छुपा नहीं है...! आज किसके पास है इस तरह का प्रेम...किसके पास ऐसी भक्ति..??  राधा और कृष्ण....प्रेम की भावना....एक चेतना स्वरुप...एक दूसरे में समाहित...! प्रेम की वह धारा जो बाहर बहते-बहते अंतर्मुखी हो जाए...जिससे इंसान पूर्णत: प्रेम स्वरुप हो जाए...वह राधा....जो हर इंसान के अंदर है...थोड़ा कम...थोड़ा ज्यादा....लेकिन है सबमें...!!  बस एक इंसान ही है जो इसका भी वर्गीकरण कर लेता है....! 

  
                                                                                                                                                                                                                          सबसे ज्यादा द्विविधा तब हो जाती है जब हम उन्हें एक चरित्र समझ कर अपनी ही परिस्थिति, अपनी मन:स्थिति में उनका समावेश करने लगते हैं....अब खुद को आप जब कृष्ण या राधा या मीरा मानने लगिये तो सोच लीजिए कि क्या हाल होगा....! पहले उनके जैसी सच्चाई तो हम उतारे अपने जीवन में, अपने संबंधों में...फिर बात करें तो उचित होगा ! उम्मीद तो हमें अपने हर संबद्ध से नैसर्गिक प्रेम की ही होती है परन्तु जब संबंधों की नींव ही झूठ,छलावे और चोरी के आधार पर रखी गयी हो तो उनमें कृष्ण सा प्रेम कहाँ और राधा सा समर्पण कहाँ...या मीरा सी भक्ति कहाँ.....???




बुधवार, 29 अगस्त 2012

कुछ अनकहा सा......





कुछ  अनकहा  सा .....

कई बार  मन में
शब्द उमड़-घुमड़ के
जुड़ते से चले जाते हैं
अपने आप ही,
और अनजाना सा अनमना सा 
कुछ बन जाता है अपने आप ही..!
मन चाहता है कि उतार दे
मन की बातों को कहीं...
कभी लिख कर..
या फिर कम से कम
किसी से share ही कर लें....!
लेकिन न वो पन्ने मिलते हैं
जिस पर हम लिख सकें...
और न वो शख्स ही....
जिससे हम मन की बातें कह सकें...
और सब अनलिखा,अनकहा सा
बहुत कुछ रह जाता है 
हमारे साथ ही....!!