बड़ी द्विविधा में हूँ आजकल......
किसे स्वीकार करूँ.....???
एक वो 'तुम' हो
जिसे मैं अब तक जानती थी,
पहचानती थी...!
आज वो कहीं गुम हो गया है
तुम में....तुम्हीं में....!
और आज एक वो 'तुम' हो...
जो उस तुम से अनजान
अपने जीवन की सारी सच्चाइयाँ
अपने आप में समेटे मेरे समक्ष है.......!
हमेशा ही तुम्हें एक सहारे की खोज रही...
कभी इंसान,कभी भगवान...
घर,बाहर,अपने शहर से दूसरे शहर...
अपने-पराये...
सब में सहारा खोजते हुए
तुम इतनी दूर निकल गए
कि अब वापस आना भी
मुमकिन नहीं रहा...!
शायद तुम ये अच्छे से जान भी गए हो...!
तभी तो आज
अपने ही अहं को सबसे बड़ा
सहारा बना लिया है तुमने !
इसमें मैं कहाँ हूँ तुम्हारे साथ.....??
इस 'तुम' को मैं जानती नहीं....
न ही पहचानती हूँ...!
और 'वो तुम' रहे नहीं...
कभी सोचूँ भी तो......
बोलो किसे स्वीकारूँ....???
(लेकिन ये द्विविधा मेरी अपनी है....तुम्हारी नहीं....!!)