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बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

उम्मीद.......






वादे भी कीजिये  ओ मुकर कर के देखिये 
जब बात न बने तो बदल कर के देखिये  !


माना  कि प्रेम पलता  नहीं  सबके  दिलों  में
फिर भी किसी को दिल में बसा कर के देखिये !

जब आएगा सैलाब तो सब बह ही जायेगा

धारा को अपनी ओर पलट कर के  देखिये !

इस दिल में रह रहा था जो अब तक उधार में

उस  को  ही  खरीदार  बना  कर  के  देखिये !

जो ख्वाब तेरे टूट गए.....फिर  न  जुड़ेंगे....
कुछेक  नए  ख्वाब संजो कर तो  देखिये...!

जन्नत कहीं नहीं है...वो दिल में ही पल रही

कुछ हंसिये खुद भी और हंसा कर के देखिये !

मिलने की अब उम्मीद न करिये रकीब से 

आँखों  में  उसका  नूर बसा  कर के देखिये...!





सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

स्वप्न......






जागते हुए सोना
सोते हुए जागना
बस ऐसी ही होती है
हमारे मन की स्थिति...! 
सूरज कब उगा ,
किधर से उगा...
और कब,
किस तरफ डूब गया...!
चाँद निकला तो...
मगर रौशनी थी या नहीं...
देख ही नहीं पाते अक्सर हम ही...!
रौशनी दिखी भी कभी... 
तो कहीं दूर.......
किसी दूसरे के आँगन में...!
सूरज चमका तो ज़रूर...
मगर किसी दूसरे की आँखों में...!!
हमारी बोझिल आँखें 
अपने आप में,
अपने आस-पास में...
रौशनी देख ही नहीं पातीं...!
चाँद की शीतलता 
जो दूसरे के आँगन में पाई...
अपने ही आँगन में वो..
हमें छू तक नहीं पाती...!!
वास्तविकता तो ये है कि 
जो नजदीक का देख सके... 
हमने वो दृष्टि ही नहीं पाई...!!
नज़रें अपने से कहीं दूर 
क्षितिज में गड़ाए बैठे रहते हैं..
वहाँ बादलों में उभरते हुए चेहरों में 
सब नजर आता है...
कुछ स्मृतियाँ उभरती हैं...
कुछ ध्वनि-प्रतिध्वनि भी 
सुनाई देने लगती है 
और फिर नजदीक के 
सारे चेहरे लुप्त हो जाते हैं..
पास की कोई ध्वनि सुन सकें 
वही कान बहरे हो जाते हैं.....!
जो रिश्ते...
जो सम्बन्ध...
हमीं ने बनाए थे कभी  
उन्हीं से बू आने लगती है 
और सबके सब अपनी ही 
आँखों में धूमिल पड़ जाते हैं..!
उनका अपनत्व विलुप्त हो जाता है 
हमारे लिए ही...
और अपने ख्वाब ही 
सच्चे लगने लगते हैं हमें...!
फिर जन्म होता है 
एक नए सूरज का...
एक नए चाँद और सितारों का...!
मगर कब तक...??
अपनी ही बनायीं पूरी एक दुनिया
एक तरह से हम खुद ही  
नकार देते हैं पूरी तरह से....!
अपने ख़्वाबों की दुनिया ही 
हमें दैविक लगने लगती है...!
आस-पास की स्तुतियाँ
मंत्रोच्चारण भी...
उस दैविक मंगलाचरण के आगे 
फीके पड़ जाते हैं...!
और फिर इस संसार और संबंधों से 
मुंह मोड़ना बहुत आसान हो जाता है !
क्यूँ कि वहाँ...
दूर में बहुत कुछ है 
जो हमें लुभाता है !
एक दिवास्वप्न जो 
जीने का एहसास तो दिलाता है
लेकिन जिया नहीं जा सकता...!
बस ऐसे ही.. 
जीवन बीत जाता है हम सबका...!
और फिर इसका सारा दोष 
हम अक्सर दूसरों को...
परिस्थितियों को...
कभी किस्मत को...
और कुछ न मिले तो... 
भगवान को ही दे देते हैं...!!!






"जो बीबी से करते हैं प्यार.......वो प्रेस्टिज से कैसे करें इनकार.."






कल मूवी हॉल में.. 
एक बहुत पुराना विज्ञापन देखा
प्रेस्टीज प्रेशर कुकर का ...
सुनते ही कुछ लाइनें मन में 
ट्यूब लाईट की तरह जल उठीं....!

शायद आपको भी याद हो....!!
समय और परिस्थिति के साथ 
बहुत सी बातों के मायने बदल जाते हैं...!!


"जो बीबी से करते हैं प्यार
वो प्रेस्टिज से कैसे करें इनकार.."

शायद इसीलिए आज तक
तुम प्रेस्टिज नहीं खरीद पाए...!
यूँ तो मेरे बारे में हमेशा ही 
झूठ बोला है तुमने सभी से
लेकिन ये एक झूठ... 
तुम खुद से भी नहीं बोल पाए...!!




शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

सन्नाटा......




आधी रात की तन्हाई....
बड़ी अजीब होती है !
बस ! हम ही हम
यहाँ कोई दूसरा नहीं...!
खुद कहते हम...
सुनते भी हम..!
एक अजीब सा सन्नाटा 
भीतर-बाहर...!
शरीर-मन का अजीब सा संयोग...!
जो सिर्फ 
और सिर्फ हम ही 
महसूस कर सकते हैं...!
और कोई नहीं...!
कोई भी नहीं.......