कल अपनी एक डायरी उठाई काफी देर तक उसे पढ़ती रही..अपना ही लिखा हुआ अनजाना सा लगा...लगा ही नहीं कि मेरा ही लिखा हुआ है.कई बार हम खुद तो कुछ नहीं चाहते लेकिन साथ वाले की मन:स्थिति हमें कुछ सिखा देती है...बता देती हैं और हम अनजाने ही सब सीखते जाते हैं,समझते जाते हैं...ईश्वर की कृपा बनी रहे तो अपरोक्ष ही सीखना बेहतर होता है. .वर्ना हाथ तो हमारे भी जलते-झुलसते हैं....
और ये जलन बर्दाश्त के बाहर होती है !
जिस समय लिखा था उस समय के हालात और थे और आज के हालात कुछ वैसे ही हैं. हाँ !! एक बात ज़रूर हुई इस बीच...मैंने खुद को पा लिया...आज भी सब कुछ पूर्ववत ही है !! ये दुनिया अपने हिसाब से चल रही है !! रिश्ते-नाते, अपने-पराये (कुछ नए नाम जुड़े,कुछ पुराने,डिलीट तो नहीं कहूंगी,हाँ होल्ड पर जरूर हैं)और जीवन से वास्तविक परिचय धीरे-धीरे होता चला गया इसी बीच....!!!
२००६ से २०११ का समय बीत गया....एक लम्बा अरसा जो मैंने अकेले जिया..किसी को इसका क्रेडिट नहीं दूंगी क्योंकि इस समय कोई मेरे साथ था ही नहीं....सिवाय मेरे,मेरे और मेरे.....!!
अभी से कुछ संस्मरण (एहसास भी कह सकती हूँ पर नहीं कहूँगी क्यूंकि एहसास बोल कर दुबारा कष्ट नहीं देना चाहती खुद को और न ही दुबारा जीना चाहती हूँ वो सब) मेरी डायरी के रहेंगे वर्ना सब मेरे साथ ही रह जायेंगे ऐसे ही लिखे हुए.....शायद इससे हम (मैं आप की बात नहीं कर रही हूँ ) आपसी संबंधों,रिश्तों,परिस्थितियों और अपनी ही भावनाओं-अनुभूतियों को समझ सकें....! अपना ही लिखा हुआ हर बार ही खुद को कुछ नया एहसास करा जाता है !
कृपया, अगर आपसे विचार मेल खातें हों या न खाते हों तो अन्यथा न लें ! बस, और रचनाओं की तरह इन्हें भी सहजता से ही लें......!!
शुक्रिया......!!
३०-१०-२००६
रिश्ते.....पास भी...दूर भी !!
कुछ बने-बनाए
कुछ खुद से बनाए
ये रिश्ते !
कुछ चाहे
कुछ अनचाहे
ये रिश्ते !
क्यूँ उलझता है
इंसान इसमें ?
किसलिए ?
सहारा,प्यार,अपनापन !
क्या खोजता है इनमें ?
जो बने-बनाए रिश्ते-
उनमें अब रस नहीं...!
जो खुद से बनाए रिश्ते-
उनमें बंधन नहीं..!
कुछ चाहे रिश्ते...
जिनमें प्यार नहीं...!
कुछ अनचाहे रिश्ते...
जिनमें अपनापन नहीं...!
इंसान इनमें बंधना
और आज़ाद रहना
दोनों ही चाहता है साथ-साथ !!
फिर कुछ ऐसे रिश्ते भी हैं
जिनमें एकाएक कुछ दीखता है..
प्यार,अपनापन,सहारा,एहसास !
जो इंसान अपने चारों तरफ
बेसब्र हो कर खोजता रहता है
(अपनी अपूर्णता जो उसकी खुद की है)
लेकिन कहने को...
हर रिश्ते की अपूर्णता
उस रिश्ते में
पूर्ण होती सी दिखाई देती है !
बाकी सारे रिश्ते
गांठों की तरह
ढीले होते से लगते है,
मन बेचैन,
शरीर थका सा !!
अब क्यूँ..??
फिर भी जीवन में
कहीं कुछ अपूर्ण है
जिसकी खोज में भटक रहा है वो !
जो है...उसमें भी
आनंद नहीं ले पा रहा है
और जिस आनंद की खोज में है
वो मिले कैसे...???
यह वह समझ नहीं पा रहा है !
तो फिर क्या करे..?
क्या इन रिश्तों में है वो आनंद !
जिन्हें वो खोज रहा है...!!
या फिर उसकी खोज में
रोज़-रोज़ नए रिश्ते बनाते जाये..!!!
हर रिश्ता एक बंधन देता है
कुछ चाहता है,कुछ मांगता है
स्थूल और सूक्ष्म तरीके से !!
उसकी पूर्ति हम कैसे करते हैं ?
यह हर व्यक्ति और
परिस्थिति पर निर्भर करता है.....!!!
फैसला आपके हाथ.........
और ये जलन बर्दाश्त के बाहर होती है !
जिस समय लिखा था उस समय के हालात और थे और आज के हालात कुछ वैसे ही हैं. हाँ !! एक बात ज़रूर हुई इस बीच...मैंने खुद को पा लिया...आज भी सब कुछ पूर्ववत ही है !! ये दुनिया अपने हिसाब से चल रही है !! रिश्ते-नाते, अपने-पराये (कुछ नए नाम जुड़े,कुछ पुराने,डिलीट तो नहीं कहूंगी,हाँ होल्ड पर जरूर हैं)और जीवन से वास्तविक परिचय धीरे-धीरे होता चला गया इसी बीच....!!!
२००६ से २०११ का समय बीत गया....एक लम्बा अरसा जो मैंने अकेले जिया..किसी को इसका क्रेडिट नहीं दूंगी क्योंकि इस समय कोई मेरे साथ था ही नहीं....सिवाय मेरे,मेरे और मेरे.....!!
अभी से कुछ संस्मरण (एहसास भी कह सकती हूँ पर नहीं कहूँगी क्यूंकि एहसास बोल कर दुबारा कष्ट नहीं देना चाहती खुद को और न ही दुबारा जीना चाहती हूँ वो सब) मेरी डायरी के रहेंगे वर्ना सब मेरे साथ ही रह जायेंगे ऐसे ही लिखे हुए.....शायद इससे हम (मैं आप की बात नहीं कर रही हूँ ) आपसी संबंधों,रिश्तों,परिस्थितियों और अपनी ही भावनाओं-अनुभूतियों को समझ सकें....! अपना ही लिखा हुआ हर बार ही खुद को कुछ नया एहसास करा जाता है !
कृपया, अगर आपसे विचार मेल खातें हों या न खाते हों तो अन्यथा न लें ! बस, और रचनाओं की तरह इन्हें भी सहजता से ही लें......!!
शुक्रिया......!!
३०-१०-२००६
रिश्ते.....पास भी...दूर भी !!
कुछ बने-बनाए
कुछ खुद से बनाए
ये रिश्ते !
कुछ चाहे
कुछ अनचाहे
ये रिश्ते !
क्यूँ उलझता है
इंसान इसमें ?
किसलिए ?
सहारा,प्यार,अपनापन !
क्या खोजता है इनमें ?
जो बने-बनाए रिश्ते-
उनमें अब रस नहीं...!
जो खुद से बनाए रिश्ते-
उनमें बंधन नहीं..!
कुछ चाहे रिश्ते...
जिनमें प्यार नहीं...!
कुछ अनचाहे रिश्ते...
जिनमें अपनापन नहीं...!
इंसान इनमें बंधना
और आज़ाद रहना
दोनों ही चाहता है साथ-साथ !!
फिर कुछ ऐसे रिश्ते भी हैं
जिनमें एकाएक कुछ दीखता है..
प्यार,अपनापन,सहारा,एहसास !
जो इंसान अपने चारों तरफ
बेसब्र हो कर खोजता रहता है
(अपनी अपूर्णता जो उसकी खुद की है)
लेकिन कहने को...
हर रिश्ते की अपूर्णता
उस रिश्ते में
पूर्ण होती सी दिखाई देती है !
बाकी सारे रिश्ते
गांठों की तरह
ढीले होते से लगते है,
मन बेचैन,
शरीर थका सा !!
अब क्यूँ..??
फिर भी जीवन में
कहीं कुछ अपूर्ण है
जिसकी खोज में भटक रहा है वो !
जो है...उसमें भी
आनंद नहीं ले पा रहा है
और जिस आनंद की खोज में है
वो मिले कैसे...???
यह वह समझ नहीं पा रहा है !
तो फिर क्या करे..?
क्या इन रिश्तों में है वो आनंद !
जिन्हें वो खोज रहा है...!!
या फिर उसकी खोज में
रोज़-रोज़ नए रिश्ते बनाते जाये..!!!
हर रिश्ता एक बंधन देता है
कुछ चाहता है,कुछ मांगता है
स्थूल और सूक्ष्म तरीके से !!
उसकी पूर्ति हम कैसे करते हैं ?
यह हर व्यक्ति और
परिस्थिति पर निर्भर करता है.....!!!
फैसला आपके हाथ.........