कितनी कोशिशें करते है हम-
औरों के संबंधों को सुधारने के लिए,
हमारी सारी भावनाएं एवं अनुभूतियाँ
जुड़ जाती हैं उनके साथ!!
तरह-तरह से
बार-बार,लगातार
लगे रहते है हम उनके साथ....
कि किसी तरह-
उनके आपसी सम्बन्ध
बेहतर हों जाएँ.....
और वो ज़िन्दगी का
भरपूर मज़ा ले पायें.
लेकिन जब बात आती है
हमारे आपसी संबंधों की
तो सारी कोशिशें शांत हों जाती हैं..
हमारी सारी उम्मीदें
सामने वाले से जुड़ जाती हैं.
हमारी भावनाएं,संवेदनाएं एवं एहसास
अपने तक ही सिमट कर रह जाते हैं
सामने वाले को भी-
हम इसका पता नहीं देते हैं
वही व्यक्ति....
जो अपने अंदर के एहसास को
दूसरों को जताने के लिए,
उन तक बार-बार
दौड़ कर जाता है
अपनों की बात आते ही....
अपने अंदर सिमट कर रह जाता है!!
दूसरों के संबंधों को बेहतर बनाने के लिए
कृष्ण की भूमिका निभाने वाला
वही व्यक्ति.....
अपनों की बात आते ही
बुद्ध की भूमिका में नज़र आता है.
मार्च,2007
कलियुग या अर्थ युग पूनम जी
जवाब देंहटाएंहर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंbahut achgchi lagi.
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावनाएं, सुन्दर विचार.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंखुद को कसौटियों पर कसना कब सरल रहा ?