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शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

तुम...........................मैं






तुम...........................मैं
मैं.............................तुम
दोनों के बीच 
खालीपन कहाँ....
साझेदारी कहाँ...??
सब समझा हुआ...जाना हुआ
सम्पूर्ण दर्शन है तुम्हारा...
तुम से ही प्रतिबिंबित है 
ये पूरा जीवन हमारा...!
तुम तो यही समझते हो कि
तुम्हारी हर सोच...
मुझ पे भारी पड़ती है..
क्यूँ.....???
कभी सोचा है तुमने..??
हम धागे के दो छोर
आपस में जुड़े तो हैं...
लेकिन तुम..
अपना सिरा पकड़े 
अपनी ही जगह पर खड़े हो...!
नहीं अड़े हो.....
और अपेक्षा है मुझसे कि
बीच की ये सारी दूरी 
मैं अकेले ही तय करूं..!
जीवन का सारा दर्शन,चिंतन और विश्लेषण
सब का सब...
तुम्ह्रारा पढ़ा हुआ,देखा हुआ,भोगा हुआ...
और मैं.......
निरा कोरी....
न कोई दर्शन,न कोई चिंतन...
न ही जीवन का कोई विश्लेषण...!
न कुछ देखा...न पढ़ा....
न कोई अनुभव.....
बस एकदम अछूती...!
अस्पृश्य सी इतनी जिंदगी 
जो जी है तुम्हारे साथ....!
फिर इस तुम.......से.........मैं 
और मैं...........से...........तुम तक का 
सफर कैसा...??
एक लंबी सी खायी...
जो ऊपर से भरी दिखाई देती है...
लेकिन भीतर की गहराई
किसे दिखाई देती है...! 
जीवन के सत्य की खोज...
तुम्हारी तुम्हारे लिए ही...
और मेरी खोज मेरे लिए है...!
शायद एक दूसरे के 
काम न आ सकेगी कभी भी...!
फिर हर वक्त खुद को दूसरे पे थोपना क्यूँ...?
खुद को बेहतर दिखाना या बताना क्यूँ...??
क्या इसे हमारा पूर्ण हो जाना कहेंगे...???

***पूनम***
बस...अभी अभी....


शनिवार, 23 नवंबर 2013

क्या समझूँ........




है बड़ी मुश्किल यहाँ कोई नज़र आता नहीं...
आप ही अब कुछ कहें...मुझको समझ आता नहीं....!!

दूर तक तन्हाई ही मुझको नज़र आती है अब...
कोई तो हमदम मिले...मुझको समझ आता नहीं...!!

आप थे हमदम मेरे अब हो गयी हैं दूरियां...
कैसे होंगी दूर ये...मुझको समझ आता नहीं...!!

है कोई तो बात वरना आप कुछ कहते ज़रुर ...
आप हैं खामोश क्यूँ...मुझको समझ आता नहीं....!!

फासले मिट जायेंगे..सिमटेंगी सारी दूरियाँ...
पास कैसे आयेंगे...मुझको समझ आता नहीं...!!


***पूनम***



गुरुवार, 7 नवंबर 2013

बहाने....





सितारे रूठ गए मेरे आशियाने से..
न बाज़ आये तुम फिर बिजलियाँ गिराने से..!

हमें सताए बिन न उनको  चैन आये कभी...
वज़ह वो खोजते रहते हैं कुछ बहाने से...!

कभी भी रस्मे वफ़ा वो नहीं निभा पाया 
उम्मीद उसको हमेशा रही ज़माने से...!

तुम्हारी बज़्म में वाईज़ भी हैं रिंद भी हैं...
नज़र तुम्हारी ही टिकती नहीं ठिकाने से...! 


किसे है चाह के मिल जाये उसको तख़्तो ताज़..
सुकून मिलता है  'पूनम ' को दिल लगाने से...!

***पूनम***
आज और अभी....



मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

आओ...एक दीप जलाएं....





कभी जब हो उदासी तुम पे छाई...मुस्कुराओ तुम...
जलाओ एक दीपक प्रेम का...और गीत गाओ तुम...!
अँधेरा अपने घर के साथ...जग का दूर कर दो तुम...
कभी रोते हुए बच्चे के संग संग खिलखिलाओ तुम...!!




***पूनम***



बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

वफ़ा तुम कर नहीं सकते.....





खुशी की बात करते हो मगर खुश हो नहीं सकते...
हमें अपना नहीं कहते...हमारे हो नहीं सकते...!!

जो रातों की सियाही को उजाला कर नहीं पाए...
सुबह हमने दिखाई...तुम उजाला कर नहीं सकते...!!

हजारों ख्वाहिशे दिल की तुम्हारे चार सू फैलीं...
हमारी बंदगी पर...अब इशारा कर नहीं सकते...!!

कभी मांगी थी बस मैंने तेरे दिल की नियामत ही...
हुई अब देर काफी...तुम शिकायत कर नहीं सकते...!!

तेरी फितरत में है बस घूमना औ घूमते रहना...
किसी इक शख्स की जानिब...वफ़ा तुम कर नहीं सकते..!!

खुदा गर है कहीं तो राह मुझको मिल ही जायेगी...
हमारी ज़िंदगी को...हम भी जाया कर नहीं सकते...!!




शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

खरामा खरामा......











चले आ रहे हैं खरामा खरामा 
वो अपनी नज़र को झुकाए झुकाए...!

नहीं हमने देखी कभी ऐसी शोखी..
है गिरती नजर से झुकाए झुकाए...!

कभी छोड़ देते हैं दिल पर निशानी
परेशां भी खुद किस तरह से मिटाए...!

वो बैठे हैं महफ़िल में कर के किनारा..
खुदारा कोई उनको न देख पाए...!









शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

राबता......




बेवजह उनसे बात कर डाली...
अपनी तबियत खराब कर डाली...

प्यार जब हो सका नहीं मुझसे...
मेरी बदनामियां ही कर डाली

हमने देखा नहीं उन्हें कब से...
जिंदगी यूँ तबाह कर डाली..

उनको था नाज़ अपनी सूरत पे
फिर भी सूरत खराब कर डाली..

हम भी कमतर नहीं थे कुछ उनसे...
जिंदगी उनके नाम कर डाली...

आप क्यूँ बेवजह दुखी हैं अब...
आप पर हमने है नज़र डाली

आपसे राबता रहा 'पूनम'..
इसलिए आज बात कर डाली...!

सोमवार, 23 सितंबर 2013

मेरा इश्क..........



मेरा इश्क मेरा जुनून है....नहीं तुझसे कोई गिला किया...
मेरे नाम से तू उबर गया...नहीं मुझसे फिर तू मिला किया 

मेरी चाहतें....मेरी नेमतें....मेरे अधखुले कई ख्वाब हैं...
जो कुबूल हो भी तुझे कभी....मेरे आंसुओं ने गिला किया 

वो जो मेहरबां था कभी मेरा....नहीं राजदां है वो अब मेरा 
कभी दिल गवां के भी हंस दिए....कभी दिल से दिल का सिला दिया

मेरा दिल कभी तेरे नाम था...मेरे दिल में तू सरेआम था... 
रही अब तलब न मुझे तेरी...दिल-ए-गुल था...यूँ ही खिला किया 

मैं तेरे नसीब में थी कहाँ...तू मेरा नसीब भी न रहा...
जो बनी दुआ तो सिमट गयी...तन्हाई को भी जिला दिया 

मैं थी एक शम्मा जो बज़्म में...नहीं दे सकी तुझे रौशनी
मेरा जिस्म जल के न मिट सका...तुझे खाक में तो मिला दिया 






शनिवार, 21 सितंबर 2013

मैं.....






मेरे जीवन की अभिलाषा...
न जाने कब पूरी होगी...
अस्फुट से स्वर की चंचलता...
तुझ से मिल कर स्थिर होगी...
तू परिचित भी है..अपरिचित भी...
तू अपना भी...बेगाना भी...
न जाने ये कैसा अभिनय...
जाना भी है...अनजाना भी...
मेरे अपने...मेरे सपने...
तू पास भी है..तू दूर भी है...
तू मुझमें है आधा -आधा...
तू मुझमें ही सम्पूर्ण भी है...!!




***पूनम***



गुरुवार, 12 सितंबर 2013

सदके.......






तेरी बातों में अब मुझको...मुहब्बत ही नज़र आती..
ए मेरे यार! मैं तुझ पे.....तेरे इस प्यार पे सदके..!!

तेरे इकरार के सदके....तेरे इनकार के सदके...
कहा कुछ भी नहीं लेकिन...तेरे इज़हार के सदके...!!


***पूनम***





सोमवार, 2 सितंबर 2013

अधूरे ख्वाब...





बेचैन बहुत कर देते हैं 
कुछ ख्वाब अधूरे इस दिल को..
चुपके से दिल में रहते हैं ! 
जो ख्वाब न पूरे हो पाए 
अक्सर आँखों में चुभते हैं !
पलकों पर ओस की बूंदों से 
लहराते हैं कुछ झिलमिल से 
कुछ ख्वाब अधूरे-आधे से 
जो आज छलक फिर आये हैं 
इन आँखों में आँसू बन कर...
इन पलकों पर मोती बन कर....!!



***पूनम***


गुरुवार, 29 अगस्त 2013

फरेबी.....



हैं फरेबी सभी शख्स वो भी बड़े...
जिनके होठों पे मुस्कान दिल में जलन...!
तेरी फुरकत में हूँ कब से बरबाद मैं..
कोई भी ना मिटा पायेगा ये लगन...!
तीर तरकश से जब जब निकालेंगे वो...
याद फिर आ ही जायेगी उसकी चुभन...!
अपने लफ़्ज़ों में घोला जो उसने ज़हर..
. हंस के हम पी गए मिट गयी सब जलन...!

तुम मुखातिब रहो या मुखालिफ रहो....

ढूंढ लेंगे तुम्हें हम चमन दर चमन...!










रविवार, 25 अगस्त 2013

उनकी सूरत............





उनकी सूरत निखर गयी होगी,
रोशनी  जब उधर  गयी होगी...!

रात इक गीत उसने छेड़ा था,

उसको  भी ये खबर गयी होगी ...!

लिखते लिखते खयाल आता है,

ख्वाब में वो उतर गयी होगी...!

मेरे आने से बात बन जाए,

बज़्म तेरी संवर गयी होगी...!

हमको इलज़ाम दे रहे हैं वो,

कुछ तो उन पर गुज़र गयी होगी...!

रात भर कोई गीत गाता था,

आग दिल की किधर गयी होगी...!

शाम से ही चराग जलते हैं, 

चांदनी कुछ बिखर गयी होगी...!

बात छेड़ी जो आज 'पूनम 'की,

सारी दुनिया ठहर गयी होगी...!


***पूनम***


चाँद.......






कल रात चाँद चमका...मेरे आँगन में इस तरह 
चमके है जैसे दामिनी....बादल में इस तरह 
कुछ चल रही हवाएं भी....उस वक्त तेज तेज  
खुशबू उड़ी दिशाओं में भी थी....कुछ इस तरह 
चमके थे साथ तारे...........आँचल में रात के  
जैसे हो ओढ़नी......किसी दुलहन की इस तरह

***पूनम***
आधी रात का प्रलाप...
२६/८/२०१३






बुधवार, 21 अगस्त 2013

आज का चाँद...........


 ( मैंने ही ये तस्वीर भी...)




ये  मुझे किसने टांग दिया है...

दो बिल्डिंगों के बीच में...?

मैं तो आसमान में उन्मुक्त अकेला हूँ...! 

साथ में हैं कुछ टिमटिमाते सितारे..

जिनकी रौशनी तुम तक पहुँच नहीं पाती...! 

तुम तक सिर्फ और सिर्फ मेरी पहुँच है....!

चाहो तो सिर उठा कर ऊपर देख लो...

मैं हूँ तुम्हारी हद के अंदर...

और तुम......??

मेरी.....!!!







अभी अभी...
बैंगलोर
21/8/2013

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

हाशिए.......



अपनी जिंदगी को ...

कितने हाशियों में 

बाँट रखा है इंसान ने 

खुद नहीं जानता अपने आप को...

और सारा समय कोशिश करता है 

दूसरों को समझने की....

समझाने की ...!

अपनी ज़िंदगी को सहज,सरल 

न बना कर उलझाने में लगा है !

जरा जरा सी बात पर 

हाशियों को खींचने में 

लगा रहता है अपनों के दरमियाँ..

और जब दूरी बढ़ जाती है 

तो खुद परेशान हो जाता है !

खुद तो जब चाहे...

तब दीवार उठा देता है 

लेकिन दूसरों की रखी एक ईंट भी 

ठोकर देती है उसे...!

जिंदगी सरल भी है और....

सुन्दर भी....!

लेकिन दरमियाँ के ये हाशिए....

इसे सुन्दर रहने दें तब न.....!!






रविवार, 4 अगस्त 2013

सन डे के फन डे का फ़ाइनल फंडा.....









शेर शेरनी से नहीं डरता 
क्यूँ कि प्यार करता है....
शादी नहीं करता....!



आदमी औरत से डरता है
क्यूँ कि शादी तो करता है...
प्यार नहीं करता.....!!



***प्रदीप चौबे***





गुरुवार, 18 जुलाई 2013

निगाह-ए-करम.....






कुछ करम हम पर अगर हो जायेगा...
तू बता मुझको तेरा क्या जायेगा...!

हम भी जी लेंगे जहाँ में चैन से 
बंदापरवर भी है तू...कहलायेगा !

इस जहाँ में कौन अब तेरे सिवा...
मेरे हिस्से में तो बस तू आएगा...!

दुश्मनों की भीड़ है चारों तरफ...
मेरे खुदा मुझको बचा ले जायेगा...!

गर रहे हर वक्त मेरे साथ तू
इस जहाँ से वास्ता छूट जायेगा..!

घात में बैठा हुआ इंसान है..
जान ले के ही ये अब तो जायेगा...!

रहम कर दे तू अगर मेरे खुदा 
आशियाँ मेरा भी बच ही जायेगा..!






रविवार, 14 जुलाई 2013

सही अर्थों में मित्रता.....









मन हो सुगन्धित मित्रता से आयु इसकी दीर्घ हो....
चरित्र सबका उच्च हो और भावना भी पवित्र हो...
हों साथ अपने मित्र जब आनंद भी अतिरेक हो...
फूले फले उपवन हमारा...कामना ये पूर्ण हो....!!



***पूनम***
१३/०७/२०१३



गुरुवार, 11 जुलाई 2013

पैगाम........






कोई आहट तो मिले या कोई पैगाम आये 
कहीं से भेजे मगर कुछ तो मेरे नाम आये !

नहीं नज़र में मुरव्वत कहीं नज़र आती  
वो संगदिल ही सही कुछ तो मेरे काम आये...!!



अभी अभी...




रविवार, 7 जुलाई 2013

मुखौटे....






बहुत दिन हो गए
हमें अपनापन का नकाब पहन कर
दुनिया से अपना सच छुपाते हुए....!
इस नकाब के पीछे है
हमारे रिश्तों की सच्चाई !
कुछ चाहे ...कुछ अनचाहे रिश्ते
कुछ रिश्तों के वजूद न रह कर भी हैं...
और कुछ रिश्ते साथ रह कर भी बेवजूद हैं !
बड़ी थकन भरी है ये दोहरी जिंदगी...!
आओ...
अपने इन निर्जीव सम्बन्ध को...
पूरी नग्नता के साथ 
दुनिया के सामने उजागर करते हैं...!
मेरे लिए ये ज़रा भी मुश्किल नहीं...!
और तुम्हारे लिए भी सच सामने लाना 
ज्यादा मुश्किल न होगा....!!
आज हम अपना अपना
ये झूठा नक़ाब उतार फेंकते हैं..... 
और कुछ देर के लिए ही सही....
अपने इंसान होने का अभिनय करते हैं... !!





तस्वीर....







तस्वीर तेरी दिल में सजा रखी है कब से...
ये अलग बात है....

दुनिया को दिखाई नहीं अब तक.!..
तू उजागर न हो सके ज़माने के सामने 
इसलिए....

मैं ने ये बात छुपाई है अब तक...!!




***पूनम***





सोमवार, 1 जुलाई 2013

'दुआ'....................





दुआयें दे रही कब से तुझे मेरी सदाएं हैं...
हमारे बाद भी रह जायेंगी मेरी वफाएं हैं...!

मुझे उम्मीद कब थी तुझसे मेरे हमसफ़र बतला...
मेरे दामन में आ सिमटी फ़कत तेरी जफ़ाएं हैं...!

तू मेरा था...तू मेरा है...रहेगा कल भी तू मेरा...
नज़र बदले कभी तेरी...यही मेरी दुआएं हैं....!



***पूनम***
एक कोशिश...अभी अभी....




मंगलवार, 11 जून 2013

नक़ाब.....





अपने चेहरे से हटा दे तू अब ये दोहरे नक़ाब...
इनसे महफूज़ तेरी फितरत न बदल पाएगी..!
मैंने कब था कहा...'तू मुझको संवार जालिम...'
तू सुधर जाय तो किस्मत भी संवर जायेगी..!!

***पूनम***
बस अभी अभी...


रविवार, 9 जून 2013

आज के परिवेश में कृष्ण,राधा और मीरा......

फिर से एक पुरानी पोस्ट आपके सामने है....!
बड़े दिनों के बाद अपनी ही एक पोस्ट ने मुझे फिर सोचने को मजबूर कर दिया ...साथ ही लोगों के विचार और प्रतिक्रिया भी बहुत कुछ कह रही है...! न चाहते हुए भी कभी कभी हम कुछ ऐसा लिख जाते हैं जो समय,काल और परिस्थिति के सर्वथा उपयुक्त होता है....!
कुछ सम्मानित लोगों की राय विचारणीय है......!!


आज के परिवेश में कृष्ण,राधा और मीरा......
            


                                     कई दिनों से सोच रही थी कि इस विषय पर कुछ लिखूं...अक्सर लोगों को उदाहरण देते सुनती हूँ, देखती हूँ या यूँ समझ लीजिए कि एक तरह से खुद और दूसरों के प्रेम की तुलनात्मक व्याख्या करते देखती हूँ  कृष्ण-राधा के प्रेम से और मीरा के प्रेम से....!! समझ नहीं आता ये ऐसा क्यूँ कर करते हैं....??  प्रेम प्रेम होता है और हमेशा अपनी तरह का होता है....! न राधा ने मीरा की तरह किया...न मीरा ने राधा की तरह...और न ही कृष्ण ने किसी की तरह....! फिर हम ही क्यूँ सारा समय अपने या किसी और के प्रेम को उनसे या फिर किसी से मिलाने में लगे रहते हैं...??  हम अपनी तरह प्रेम क्यूँ नहीं कर सकते....??  एक इंसान की तरह....! शायद हमारे पास इस बारे में सोचने का वक़्त बहुत ज्यादा है क्यूँ कि जो प्रेम करता है वो बस प्रेम ही करता है...खुद को या किसी और को किसी से मिलाता नहीं...! दरअसल उसके पास वक्त ही नहीं रहता इन सब बातों के लिए...!!
                                      बेचारे कृष्ण-राधा भी परेशान होंगे कि वो क्या कर गए...जो आज का इंसान अपने प्रेम की तुलना उनके प्रेम से करता है....! आप अपने अगल-बगल नज़र डालेंगे तो देखने में आएगा कि युवा ज्यादातर लैला-मजनू और रोमियो-जूलियट की बातें करते हैं...वैसे भी वो इन सब उदाहरणों में नहीं उलझते क्यूंकि जब वो प्रेम करते हैं तो उनका केंद्र एकमात्र उनका प्रेम ही होता है !! फिर इस तरह के प्रेम की बातें करता कौन है ?? समाज में ज्यादातर कृष्ण-राधा को उदाहरण स्वरुप कौन प्रस्तुत करता है..??  हाँ...याद आया...सबसे ज्यादा हिम्मत तो प्रो.बटुकनाथ और उनकी शिष्या जुली ने दिखाई जो इस प्रेम के ज्वलंत उदाहरण हैं....बाकी सब चोरी छुपे करते हैं और केवल बातें ही करते है इस तरह के प्रेम की...! एक ऐसा प्रेम जिसके बारे में उन्होंने सुना है, कल्पना की है....जिसे वो जी न सके और उसे ही जीने का ख्वाब देखते हुए बाकी की जिंदगी बिता रहे हैं...!!  फिर खुद को समझाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है तो कृष्ण-राधा क्या बुरे हैं...! अब शादीशुदा स्त्री या पुरुष आज के दिन में छुपा के ही प्रेम करेंगे न ! तमाम तरह के बंधन हैं उनके ऊपर....पारिवारिक...सामाजिक..सामाजिक प्रतिष्ठा..और भी न जाने कितने !! अब इतनी बातों को दांव पे तो लगा नहीं सकते...बस अपने आप को justify करने का और खुद को guilt से निकालने का एक सरल,सहज और उत्तम तरीका है कि इस प्रेम को राधा-कृष्ण से जोड़ दीजिए, अपने इस प्रेम को आध्यात्मिक दिखाइए ...बताइए...खुद को समझाइये और खुद को हर बात से मुक्त कर लीजिए...!
                                             जैसा कि हम जानते हैं कि राधा और मीरा दोनों ही विवाहित थीं और अपने प्रेम और भक्ति ( मीरा के लिए ) के प्रति आस्था और समर्पण था उनमें..! कोई चोरी न थी...न ही परिवार के लोगों से छलावा....मीरा अपने साथ कृष्ण की मूर्ति ले कर ही ससुराल गयीं थीं और राधा घर के कामकाज के बीच में ही मुरली की धुन सुन कर चल देती थीं न कि चोरी-चुपके या किसी से छुपा के...!! आज जब राधा-मीरा के प्रेम की बात होते देखती हूँ लोगों के बीच तो समझ नहीं पाती हूँ कि अपने प्रति हम कितने सच्चे हैं...अपने प्रेम के प्रति कितने सच्चे हैं.....और अपने संबंधों के प्रति हम कितने सच्चे हैं....! हमें क्या हक है कि हम कृष्ण,मीरा और राधा से तुलना करें अपनी जबकि हमारी सच्चाई कुछ और ही है...उनसे एकदम भिन्न...! लेकिन हम भी मजबूर हैं.......अपने लिए तो उदाहरण भी एकदम ऊंची श्रेणी का ही चुनते हैं ! 
                                                      देखा जाए तो उस समय भी तो इन संबंधों को मान्यता नहीं दी जाती थी....न दी गयी थी....! इन प्रेम प्रसंगों में भी कई तरह की बातें आती हैं सामने...मीरा और राधा के साथ उनके घर वालों का सलूक (अगर ये बात सच है तो ) उदाहरण है इसका..!  फिर भी देखा जाए तो कृष्ण ने कभी भी चुपके से बांसुरी नहीं बजायी थी और न ही चोरी से रास ही रचाया था राधा और गोपियों के संग...उनकी मुरली की तान थी ही इतनी मोहक कि लोग खींचे चले जाते थे...क्या पशु-पक्षी क्या इंसान...!! अब इसमें बेचारी राधा और गोपियां बेबात बदनाम हो गयीं...!! और अगर ये बात सच है तो उस समय जो हाल उन सबका हुआ था अगर आज भी वैसी ही परिस्थिति हो जाये तो आप भी वैसा ही करेंगे शायद!
                                                            अब आप कल्पना कर के देखिये कि आपका पति या आपकी पत्नी आपको घर में छोड़ कर किसी अन्य पुरुष या स्त्री के साथ नृत्य समारोह में जाए और रात में देर से घर आये तो क्या आप उसे राधा या कृष्ण मान कर घर में बड़े प्रेम से आने देंगे...और कितने दिन तक ?? अब आप कहेंगे कि उनकी बात अलग थी...उनके प्रेम का स्वरुप अलग था लेकिन आप कैसे अपने पति या पत्नी के प्रेम के स्वरुप को पहचानेंगे...क्या आप में भी वो दिव्य दृष्टि है जिससे कि आप उनके प्रेम को सही मान कर स्वीकारे या गलत मान कर नकार दें...! यदि आपकी पत्नी या पति अपने पहले प्रेमी की फोटो लेकर के आपके बेडरूम में लगा दे और सारा समय उसी में लीन रहे तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी.....!! अब आप ही सोचिये कि आज अगर सचमुच में भी आकर कृष्ण बांसुरी बजाएं और आपकी पत्नी अभिभूत हो कर सब काम-धाम छोड़ कर रोज रासलीला के लिए चली जाए घर से...और लौट के जब आये तो आप उसे बड़े प्रेम से स्वागत करेंगे.....!....फिर ऐसी परिस्थिति में क्यूँ आज प्रेमी से मिल कर लौटी पत्नी आप को राधा नहीं लगेगी...या लगती है...!
                                   भले ही प्रेम का स्वरुप मान कर आप राधा कृष्ण की पूजा करें...लेकिन सही मानिये तो ये आपसे भी संभव नहीं होगा....! अब ऐसे में फिर कोई उपाय नहीं बचता कि इस तरह के प्रेम को  समाज से...घर वालों से छुपाया जाए क्यूँ कि इसके सार्वजानिक होने से आपकी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा पर आंच आती है...और यहीं पर हम राधा-कृष्ण का उदाहरण देते नज़र आते हैं क्यूँ कि इस तरह के प्रेम के लिए हमें उनसे बेहतर उदाहरण नहीं मिलता जिससे हम अपनी नज़र में ऊँचे बने रहें और समाज की नज़र में साफ़-सुथरे...! आज हम, हमारी परिस्थिति और हमारी मन:स्थिति उनसे सर्वथा और सर्वदा भिन्न है फिर भी बड़ी आसानी से एक तरह से हम अपने आप को justify कर लेते हैं और guilt से भी बच जाते हैं....लेकिन जिन कृष्ण,राधा और मीरा की बात करते हम नहीं आघाते उनकी तरह के प्रेम से उतनी ही दूर होते जाते हैं क्यूँ कि हममें उनकी तरह समाज और परिवार की अवहेलना सहने की शक्ति ही नहीं होती है...! बड़े मज़े की बात तो यह है कि किसी दूसरे के प्रेम को देखने में हमारी यही उदार सोच संकीर्ण हो जाती है ! असल में हम अपने अलावा किसी और में कृष्ण,राधा और मीरा देखने की दृष्टि ही नहीं पा सके....संकुचित दृष्टि और सीमित सोच..! क्यूँ नहीं राह चलते एक नटखट बालक को ( जिसे हम बदमाश कहते हैं ) किसी बालिका ( गोपिका ) का दुपट्टा खींचने पर कृष्ण की उपाधि दे पाते...पास पड़ोस की आंटी जी के यहाँ से अपनापन में कुछ भी उठा लेने पर एक बच्चे में ( जिसे हम असभ्य कहते हैं ) बाल कृष्ण का रूप नहीं देख पाते....अपने प्रेमी से मिल कर लौटी अपनी ही पत्नी में ( जिसे हम बदचलन कहते हैं ) राधा सा निश्छल प्रेम का स्वरुप नहीं देख पाते...???  दरअसल हमने अपने जीवन में दोहरे मापदंड बनाये हैं...अपने लिए कुछ और और दूसरों के लिए कुछ और ...!! लेकिन जब इसी तरह की परिस्थिति हमारे अपने सामने आये तो मीरा,राधा-कृष्ण ने अपने प्रेम के सारे दरवाजे हमारे लिए खुले छोड़ दिए हैं...!

                                                                  
                                           प्रेम के उदाहणार्थ हम बात करते हैं कृष्ण,राधा और मीरा की....!! हमें मालूम है कि इस संसार में मीरा की भक्ति सर्वोपरि है...एक ऐसी भक्ति जिसमें अपने आराध्य के लिए सर्वस्व समर्पण की उद्दाम शक्ति और कामना थी....जिन्हें कृष्ण भक्ति और प्रेम के आगे कुछ भी नहीं सूझा...न परिवार...न संसार....!     कहीं कोई छुपाव-दुराव नहीं था...न परिवार से...न ही संसार से ! एक निश्छल...स्वच्छ...निर्बाध भक्ति और प्रेम...! कितने कष्ट उठाये मीरा ने कृष्ण-भक्ति और प्रेम ( हम ईश्वर से भी प्रेम ही करते हैं ) के लिए...ये किसी से छुपा नहीं है...! आज किसके पास है इस तरह का प्रेम...किसके पास ऐसी भक्ति..??  राधा और कृष्ण....प्रेम की भावना....एक चेतना स्वरुप...एक दूसरे में समाहित...! प्रेम की वह धारा जो बाहर बहते-बहते अंतर्मुखी हो जाए...जिससे इंसान पूर्णत: प्रेम स्वरुप हो जाए...वह राधा....जो हर इंसान के अंदर है...थोड़ा कम...थोड़ा ज्यादा....लेकिन है सबमें...!!  बस एक इंसान ही है जो इसका भी वर्गीकरण कर लेता है....! 

  
                                                                                                                                                                                                                                                        सबसे ज्यादा द्विविधा तब हो जाती है जब हम उन्हें एक चरित्र समझ कर अपनी ही परिस्थिति, अपनी मन:स्थिति में उनका समावेश करने लगते हैं....अब खुद को आप जब कृष्ण या राधा या मीरा मानने लगिये तो सोच लीजिए कि क्या हाल होगा....! पहले उनके जैसी सच्चाई तो हम उतारे अपने जीवन में, अपने संबंधों में...फिर बात करें तो उचित होगा ! उम्मीद तो हमें अपने हर संबद्ध से नैसर्गिक प्रेम की ही होती है परन्तु जब संबंधों की नींव ही झूठ,छलावे और चोरी के आधार पर रखी गयी हो तो उनमें कृष्ण सा प्रेम कहाँ और राधा सा समर्पण कहाँ...या मीरा सी भक्ति कहाँ.....???

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काल के परिवर्तन के साथ सच अपना स्वरुप खोता गया,संबंध अपने मायने खोते गए . आध्यात्म को अनावृत कर सबने अपने अनुसार बना लिया-प्यार,व्यभिचार सब एक ही सांचे में.....कहाँ संभव है ! प्रेम तो बस प्रेम होता है,अश्लीलता से पृथक... कृष्ण को आज भी नहीं कहना होगा कि मैं कृष्ण हूँ ...!
सत्य तो जंगल में भटक भी जाए तो अपना वजूद नहीं खोता - आज के परिवेश में सांसारिक रंगमंच पर नाटक खेल लेने से कोई पात्र ईश्वर नहीं हो जाता .
पूनम सिन्हा का यही रोष इस आलेख में है, जो सत्य और असत्य का फर्क बताती है http://punamsinhajgd.blogspot.in/2012/08/blog-post_30.html
राधा और कृष्ण....प्रेम की भावना....एक चेतना स्वरुप...एक दूसरे में समाहित...! प्रेम की वह धारा जो बाहर बहते-बहते अंतर्मुखी हो जाए...जिससे इंसान पूर्णत: प्रेम स्वरुप हो जाए...वह राधा....जो हर इंसान के अंदर है...थोड़ा कम...थोड़ा ज्यादा....लेकिन है सबमें...!!
बस एक इंसान ही है जो इसका भी वर्गीकरण कर लेता है....!
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शुक्रिया....
इस बुलेटिन में इतने बड़े बड़े सुधीजनों के बीच मुझे जगह देने के लिए...! इस तरह से किसी भी बुलेटिन पत्रिका में सम्मिलित होने से नए और पुराने कई मित्रों से बराबर संपर्क बना रहता है...और सदैव ज्ञानवर्धन भी होता रहता है...!! मेरा सौभाग्य जो मुझे यहाँ स्थान मिला......!!

जैसा कि पढ़ा,सुना,संपर्क में आने वाले लोगों को देखा,समझा,जाना और जीवन की परिस्थितियों ने दिखाया,बताया और समझाया या हमने समझा....जैसा कि हम सभी समय समय पर महसूस करते हैं या करते रहते हैं.....शायद हम तभी लिख भी पाते हैं..! हो सकता है किसी की लेखनी रोष में चलती हो.....लेकिन मेरी लेखनी इस विषय में आश्चर्य स्वरूप चल गयी है....मेरे इस आलेख की उत्पत्ति रोष के फलस्वरूप कदापि नहीं है...! पूरे आलेख में कहीं भी प्रेम को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में भी व्यभिचार और अश्लीलता का जामा नहीं पहनाया गया है...!! बस कुछ परिस्थितियों और व्यक्तियों की व्यक्तिगत सोच से इस आलेख की रचना हो गयी...हो सकता है आप भी कभी कभी लिखते वक़्त ऐसा ही करते हों...!!
द्विविधा तब उत्पन्न हो जाती है जब आज के परिवेश में संसार रूपी रंगमंच पर अपने जीवन को नाटक की खेलने वाले पात्र अपनी ही किसी भूमिका में उलझ जाते हैं तो उनके लिए नाटक के दूसरे पात्रों की भूमिका नगण्य हो जाती है...इसी के साथ उनकी अपनी भावनाएं,अपनी सोच,अपना ज्ञान,समाज-परिवार और जीवन में अपना स्थान ही अतिउत्तम और सर्वोपरि लगता है..! 
कुछ ऐसे ही विचारों से इस लेख का भी जन्म हुआ है या हो गया है...! अपने आस पास देखती हूँ तो ऐसे ही कुछ लोगों को पाती हूँ जो जीवन में अपनी भूमिका के लिए छटपटा रहे हैं....किन्तु जीवन में दूसरों की भूमिका,भावनाएं,संवेदनाएं मायने नहीं रखतीं हैं...! जीवन में यदि स्वयं के लिए इस तरह की भूमिका तय करते हैं तो उन्हीं के जीवन में उनके साथ रहने वालों की भी भूमिका इसी तरह की हो तो उनका रवैय्या कैसा होगा...??? अपने लिए जीवन में दोहरी भूमिका,दोहरा चरित्र निभाने वाले लोग अपनी ही सच्चाई को बड़ी आसानी से समाज से छुपा ले जाते हैं और फिर इन उदाहरणों से स्वयं को ही logicaly समझाने में लगे रहते हैं...!! 
बस यह आलेख इसी भावना से लिखा गया है....कि हम जिन पात्रों के जीवन या जीवनी से स्वयं के जीवन या जीवनी को मिलाते हैं...उनके जैसी सच्चाई भी हम अपने जीवन में उतारें...! यहाँ न किसी सम्बन्ध की अश्लीलता है का उल्लेख है और न किसी प्रकार का रोष का प्रदर्शन.....! 
हो सकता है कि पढ़ने वाले इस लेख को रोष के साथ पढ़ें और उन्हें इस लेख में रोष ही नज़र आये.....!! 

***पूनम***