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रविवार, 27 नवंबर 2011

रिश्ते.....पास भी...दूर भी !!

कल अपनी एक डायरी उठाई काफी देर तक उसे पढ़ती रही..अपना ही लिखा हुआ अनजाना सा लगा...लगा ही नहीं कि मेरा ही लिखा हुआ है.कई बार हम खुद तो कुछ नहीं चाहते लेकिन साथ वाले की मन:स्थिति हमें कुछ सिखा देती है...बता देती हैं और हम अनजाने ही सब सीखते जाते हैं,समझते जाते हैं...ईश्वर की कृपा बनी रहे तो अपरोक्ष ही सीखना बेहतर होता है. .वर्ना हाथ तो हमारे भी जलते-झुलसते हैं....
और ये जलन बर्दाश्त के बाहर होती है !
                   जिस समय लिखा था उस समय के हालात और थे और आज के हालात कुछ वैसे ही हैं. हाँ !! एक बात ज़रूर हुई  इस बीच...मैंने खुद को पा लिया...आज भी सब कुछ पूर्ववत ही है !!   ये दुनिया अपने हिसाब से चल रही है !! रिश्ते-नाते, अपने-पराये (कुछ नए नाम जुड़े,कुछ पुराने,डिलीट तो नहीं कहूंगी,हाँ होल्ड पर जरूर हैं)और जीवन से वास्तविक परिचय धीरे-धीरे होता चला गया इसी बीच....!!!
        २००६ से २०११ का समय बीत गया....एक लम्बा अरसा जो मैंने अकेले जिया..किसी को इसका क्रेडिट नहीं दूंगी क्योंकि इस समय कोई मेरे साथ था ही नहीं....सिवाय मेरे,मेरे और मेरे.....!!
          अभी से कुछ संस्मरण (एहसास भी कह सकती हूँ पर नहीं  कहूँगी क्यूंकि  एहसास बोल  कर दुबारा कष्ट नहीं देना चाहती खुद को और न ही दुबारा जीना चाहती हूँ वो सब) मेरी डायरी के रहेंगे वर्ना सब मेरे साथ ही रह जायेंगे ऐसे ही लिखे हुए.....शायद इससे हम (मैं आप की बात नहीं कर रही हूँ ) आपसी संबंधों,रिश्तों,परिस्थितियों और अपनी ही भावनाओं-अनुभूतियों को समझ सकें....! अपना ही लिखा हुआ हर बार ही खुद को कुछ नया एहसास करा जाता है !
          कृपया, अगर आपसे विचार मेल खातें हों या न खाते हों तो अन्यथा न लें ! बस, और रचनाओं की तरह इन्हें भी सहजता से ही लें......!!
शुक्रिया......!!


३०-१०-२००६
रिश्ते.....पास भी...दूर भी !!




कुछ बने-बनाए
कुछ खुद से बनाए
ये रिश्ते !
कुछ चाहे
कुछ अनचाहे
ये रिश्ते !
क्यूँ उलझता है
इंसान इसमें ?
किसलिए ?
सहारा,प्यार,अपनापन !
क्या खोजता है इनमें ?
जो बने-बनाए रिश्ते-
उनमें अब रस नहीं...!
जो खुद से बनाए रिश्ते-
उनमें बंधन नहीं..!
कुछ चाहे रिश्ते...
जिनमें प्यार नहीं...!
कुछ अनचाहे रिश्ते...
जिनमें अपनापन नहीं...!
इंसान इनमें बंधना
और आज़ाद रहना
दोनों ही चाहता है साथ-साथ !!
फिर कुछ ऐसे रिश्ते भी हैं
जिनमें एकाएक कुछ दीखता है..
प्यार,अपनापन,सहारा,एहसास !
जो इंसान अपने चारों तरफ
बेसब्र हो कर खोजता रहता है
(अपनी अपूर्णता जो उसकी खुद की है)
लेकिन कहने को...
हर रिश्ते की अपूर्णता
उस रिश्ते में
पूर्ण होती सी दिखाई देती है !
बाकी सारे रिश्ते
गांठों की तरह
ढीले होते से लगते है,
मन बेचैन,
शरीर थका सा !!
अब क्यूँ..??
फिर भी जीवन में
कहीं कुछ अपूर्ण है
जिसकी खोज में भटक रहा है वो !
जो है...उसमें भी
आनंद नहीं ले पा रहा है
और जिस आनंद की खोज में है
वो मिले कैसे...???
यह वह समझ नहीं पा रहा है !
तो फिर क्या करे..?
क्या इन रिश्तों में है वो आनंद !
जिन्हें वो खोज रहा है...!!
या फिर उसकी खोज में
रोज़-रोज़ नए रिश्ते बनाते जाये..!!!
हर रिश्ता एक बंधन देता है
कुछ चाहता है,कुछ मांगता है
स्थूल और सूक्ष्म तरीके से !!
उसकी पूर्ति हम कैसे करते हैं ?
यह हर व्यक्ति और
परिस्थिति पर निर्भर करता है.....!!!
फैसला आपके हाथ.........



बुधवार, 23 नवंबर 2011

फितरत...





आइना साथ लिए फिरते हैं जो गैरों को दिखाने के लिए !
अपने   ही  अक्स पे   कभी  खुद  गौर  किया   होता !!

हर समय देखते रहते है फितरत  औरों की जो !
अपनी *फ़ित्न:अंगेज़ी पे भी कभी गौर किया होता !!
(*भड़काना या षड्यंत्र करना)  

दुहाई  देते  हैं जो हर वक़्त *तर्बियत की हमको !
अपने  भी  तर्बियत पे कभी गौर किया होता !!
 (*संस्कार-बात करने का तरीका,)

*फ़िक्र:बाज़ी में लगती है जब तबियत किसी की यारों !
**फिक्रे उक्व़ा,***फिक्रे फ़र्दा उसे जनाब कहाँ है होता !!
(*फ़िकरे कसना,व्यंग्य करना,**परलोक की चिंता,
 ***कल की चिंता)




रविवार, 20 नवंबर 2011

तलाश.......




हर इंसान की जिन्दगी कुछ तलाशने में ही गुज़र जाती है....वह तलाश कुछ भी,किसी भी चीज़ की हो सकती है....शारीरिक ज़रूरतों की,सांसारिक सुख-सुविधाओं की.मानसिक सुख की,ख़ुशी की,emotional support की, perfect relations की,एक perfect soulmate की, आधात्मिक सुख की, भगवान् की....और भी न जाने क्या-क्या...???
       पूरी जिन्दगी सिलसिला चलता रहता है इसी तलाश का....कभी कुछ मिलता है तो कभी कुछ छुट जाता है !! निदा फ़ाजली जी का एक शेर है..."कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता.."और हर इंसान इसी "मुकम्मल" लफ्ज़ को जिन्दगी मुकम्मल करने के लिए हर जगह,हर इंसान और हर रिश्ते में कुछ तलाशता रहता है....फिर भी कहीं कुछ मिलता है तो कहीं कुछ....और तलाश चलती रहती है !!
            इंसान ही क्यों....इस दुनिया में जो भी आया है....वह चाहे किसी भी रूप में हो,उसका जाना निश्चित है...फिर चाहे शमा हो या परवाना,आग हो या पानी,पत्थर हो या मोम,साधु हो या शैतान,भगवान् हो या इंसान या फिर और भी किसी रूप में इस धरती पर शरीर धारण करके आया हो !! परन्तु जाते-जाते कितना तृप्त और कितना अतृप्त होगा ???...शायद वह खुद नहीं जानता....!!और उस तृप्तता को पाने के लिए हर जगह,हर इंसान,हर रिश्ते में कुछ तलाशता रहता है....शमा को परवाने की तलाश है तो परवाने को शमा की,आग को लहकने के लिए हवा की तलाश है तो पानी को तलाश है किसी नदी या समंदर की,पत्थर को तलाश है  कि कोई उसे मूर्ति में ढाले और मोम को तलाश है एक सांचे की जिसमें ढल कर वह शमा की तरह जल उठे,साधु को भगवान् की तलाश है तो शैतान को भगवान् और इंसान दोनों की,भगवान् को भी तलाश है भक्त की और एक इंसान क्या तलाश रहा है...यह वह ज़िंदगी भर नहीं जान पाता...!! कभी लगता है कि सब मिल गया,कभी लगता है कि कहीं कुछ है जो मिलना बाकी है...और इस तरह तलाश जारी रहती है क्योंकि इसका दायरा इतना बड़ा है कि गिनाना मुश्किल है.....शारीरिक सुख हैं तो मानसिक नहीं,सांसारिक सुख है तो आध्यात्मिक नहीं.....!! आध्यात्मिकता की भी अपनी अलग ही तलाश है....और यह तलाश जारी रहती है मृत्यु पर्यंत... और उसके बाद भी.....फिर एक नई जिन्दगी और फिर वही तलाश !!!

लेकिन कब तक.......???

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

ज़िंदगी..............






न ठहरी है.........न  ठहरेगी.......ज़िंदगी वो रवानी है !
जो जी लो तुम इसे सब-कुछ है.....वर्ना बहता पानी है !!


बहुत आये-गए उलमा.......बादशाह, पीर औ काजी !
सभी की ज़िंदगी पानी पे लिखी........इक कहानी है !!


किसी ने अपनी कूबत से.....बना डाला इसे बदतर !
किसी की ज़िंदगी जैसे.......समुन्दर की जवानी है !!


समझते वो हैं के मारा......उन्होंने तीर बेहतर है !
परिंदे उड़ गए कब के......कहीं न अब निशानी है...!!

हर इक रिश्ता यहाँ उनका सियासत की तरह लेकिन 
न हम आ पाए उनकी बात में....अल्हड़ जवानी है...!!





सोमवार, 7 नवंबर 2011

दोहे पूनम के...................




दुनिया ऐसी बावरी,
                               सीख  देय  सब कोय !
वही सीख खुद गुन रहे,
                               सीख सीख तब होय !!


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तेरे मन में क्या छिपा ,
                                  तू जाने, तू सोच !
मेरा मन  खाली  भया,
                                अब न रहा संकोच !!


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जिव्हा तू बडभागिनी,
                                   बड़े बड़ों को मारे !
तुझसे ही तो सब डरें,
                                   तू न सोच बिचारे !!


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अपना कहा बिसरा दिया,
                                     दूजे  का किया याद !
अपना कहा जो बिचारे,
                                     कबहूँ न रहे बिसाद !!


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भूत भविष्य सब सीख है,
                                          जो दूजे को देय !
अपने पर जब आत है,
                                        दोनों एक ही होय !!


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मानुस बिचारा बावरा,
                                     दूजे की सोच बिचारे !
अपने मन की न दिखे,
                                     दूजे अवगुण ही निहारे !!


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प्यारे से ही प्यार है,
                                  और प्यार संसार !
खुद से भी कर लीजिये,
                                      बस  थोड़ा सा प्यार !!



गुरुवार, 3 नवंबर 2011

एक दीवाली ऐसी भी....



लगा के आग घर को रौशन करें मोहल्ले को !
इस   बार  ऐसे  कुछ   दीवाली   मनाई   जाये !!

जुबान चलाओ कुछ ऐसे के तेज़ धार हो इसकी !
बिना तलवार औ खंजर के क़त्ल-ए-आम हो जाये !! 

तुम अपने दिल की सुनो हम करें फिकर अपनी !
छुपी  है  बात  जो  अब  तलक   वो  आम  हो  जाये !!



बुधवार, 2 नवंबर 2011

मन......

मन......
न जाने कितनी बार हुआ
टुकड़े-टुकड़े !
इतना कि.....
कागज़ की मानिंद
बिखर गया हवा में !
कोई ज़ज्बात,कोई एहसास  
इससे अछूता न रह पाया ! 
कभी अपनों ने ही तोड़ा-मरोड़ा,
कभी खुद हमने इसे सताया !
कितनी बार ही इसे  
हमने बहलाया-फुसलाया,
लेकिन ये न माना..!!
फिर अचानक एक दिन  
ये खुद ही...
आ गया मेरे पास
थका हारा,बेहद उदास !
अपनों ने ही न था बक्शा उसे,  
जाने कितने आरोपों और तानों से  
नवाज़ा था उसे,
बार-बार अपने पास बुला कर  
फिर ठुकराया था उसे...!
मैंने बड़े प्यार से
उसके सिर पर हाथ फेरा,
उसे सहेजा-समेटा
और एकाएक.....
सारे के सारे टुकड़े
जोड़ डाले हमने 
साथ मिल कर..!!
अचानक देखा कि...
उस पर उभरने लगीं हैं  
चंद शक्लें....
जानी-पहचानी सी,
और कुछ शब्द भी
अनजाने-पहचाने से..,
कुछ सीधे-साधे
कुछ टेढ़े-मेढ़े से,
साथ ही कुछ एहसास भी
अपने-बेगाने से...
जो केवल उसके थे !!
और फिर कविता के      
छंद  की मानिंद
जुड़ गया ये मन,
मसरूफ हो गया
फिर से खुद को
समेटने सहेजने में..!!
जैसे अपने टूटे खिलौने को
एक बच्चा खुद जोड़ लेता है ,
और मशगूल हो कर
उसी से खेलने लग जाता है !
क्योंकि .....
इस बार अपने खिलौने का जन्मदाता  
वह स्वयं होता है....!!