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रविवार, 20 फ़रवरी 2011

मौन....आज........



.


मेरी  आँखों  की  भाषा  
कभी  पढ़  न  सका  वो,
क्योंकि.........
उसे  दूसरों  की  
आँखों  में  झांकने  से
फुर्सत  न  मिली !!
मेरे  मौन  को  भी  
वो  समझ  न  सका,
क्योंकि........
उसे  दूसरों  के  दिलों  के
तह  तक  जाने  से
फुर्सत  न  मिली  कभी !!
और आज  जब.....
वह  समझा  है  
मौन  की  भाषा
और  आँखों  की  परिभाषा
तो........
वहां  मैं  नहीं  हूँ  !!


28 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है। बधाई।

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  2. बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति

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  3. आज जब वो समझा है.......... मैं वहां नहीं हूँ........ बेहतरीन
    मन को छूती अभिव्यक्ति

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  4. पूनमजी,
    मौन की तीसरी अभिव्यक्ति बहुत ही उम्दा है.
    तीनों रचनायों को फिर से पढ़ा.
    तारीफ़ के लिए शब्द नहीं मेरे पास.
    आपकी कलम को सलाम.

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  5. एक मन की अभिव्यक्ति । कुछ पंक्तियों में एक पूरा अफसाना ! अच्छी रचना ! शुभकामनाएँ !

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  6. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 22- 02- 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.uchcharan.com/

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  7. प्रिय पूनम जी,
    आपके ब्लोग पर आज पहली बार आया हूं !
    यहां बहुत कुछ पढ़ने को मिला !
    अच्छा भी १
    बहुत अच्छी कविताएं लिखती हैं आप !
    बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  8. आदरणीय पूनम जी,
    नमस्कार !
    कुछ पंक्तियों में एक पूरा अफसाना ! अच्छी रचना ! शुभकामनाएँ !

    जवाब देंहटाएं
  9. यही तो समस्या है....तारतम्य का अभाव समस्या की जड़ है....

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  10. मौन अभिव्यक्ति बहुत कुछ कह गई... स्त्री का मौन अनसमझा ही रह जाता है !, पर आखिर ये स्त्रियाँ तमाम उम्र खुद को समझाने की चेष्टा में अपना वक़्त क्यूँ गंवाती हैं ? क्या वह स्वयं खुद को अस्तित्वहीन नहीं दर्शाती ? जो औरों की आँखों में झांकता रहा , उसके आगे मौन प्रतीक्षा - अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का अपमान ही तो है !

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  11. सदा.....

    सही कहा आपने !!

    मौन कभी भी अनकहा नहीं रहता,

    देर-सबेर समझ में आ ही जाता है...!!

    और कई सामने वाला जानबूझ कर नहीं समझाना चाहता है

    क्यों कि इससे उसके अहम् को चोट पहुंचती है !!

    मौन तोड़ना बहुत आसान है...पर बरकरार रखना ज्यादा मुश्किल होता है !

    मैं उन्हें कमजोर मानती हूँ जो अपने अस्तित्व के लिए एक बंधन के साथ

    जीवन के और भी कई महत्त्वपूर्ण बंधनों को तोड़ देते हैं...!!

    अपनी अस्तित्वहीनता मौन से नहीं दर्शाई जाती बल्कि मौन रह कर दूसरे के

    अस्तित्व को भी नाकारा जा सकता है...और इसके लिए हिम्मत, प्रेम

    और अपने पर विश्वास की ज़रुरत होती है...!!

    वर्ना एक रिश्ते में प्रेम और अपने अस्तित्व को ढूँढ न पाने के कारण दूसरे कई रिश्तों

    में प्रेम और अपने अस्तित्व को तलाशते भी अपने आस-पास आप कई लोगों को पा लेंगी...

    और तो और आपके अस्तित्व का अपमान कोई नहीं कर सकता जब तक कि आप खुद न चाहें....जो औरों में कुछ तलाश रहा है.....तलाश उसकी है...

    उसके अपने अस्तित्व की और उसके भी अस्तित्व की जिसकी आँखों में कुछ पा रहा है क्योंकि

    दोनों ही अपने अस्तित्व के कुछ पहलुओं को तलाशने में एक दूसरे के करीब आये हैं......जो अपने आप में पूर्ण है वही सही शब्दों में स्त्री है और शायद इसी लिए मौन भी...............................!!!

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  12. मौन तो सही है पूनम जी .... मौन का बहुत व्यापक अर्थ और प्रभाव है , लेकिन जिस चरित्र को आपने उभारा है वहाँ मौन का साथ भी क्यूँ? घुटन क्यूँ ? और इसमें अपनी जीत ढूंढना क्यूँ ?

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  13. आप इसे पढ़िए .......यहां पर

    http://urvija.parikalpnaa.com/2011/02/blog-post_24.html

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  14. सदा ....

    बात उस चरित्र की नहीं

    अपितु बात अपनी भावनाओं और अपने एहसास की है!!

    यहाँ बात न स्त्रीत्व की है न पुरुषत्व की.

    बात अपनी अनुभूति अपने एहसास की है...

    यहाँ न घुटन है और न ही कोई बाजी है,जिसमे हार-जीत ढूँढी जाए!

    चरित्र और अस्तित्व दो विधाएं है-एक खुद से बनाया हुआ

    और दूसरा ईश्वर प्रदत्त !! चरित्र में संशोधन हो सकता है पर अस्तित्व को

    कोई छू नहीं सकता जब तक कि हम खुद न चाहें....!!

    आश्चर्य है-आपको यहाँ घुटन और हार-जीत कहाँ से दिखाई दे गई...

    आपके मौन को यदि दूसरा न समझे तो यह "उसकी समझ" और "उसकी मर्जी"..

    और अगर उसे कहीं दूसरी जगह समझ में आ रहा है तो ये उसका भटकाव,

    उसके अपने संस्कार,उसके अस्तित्व की अपूर्णता है जो शायद ताउम्र भी पूरी न हो सके.

    ढूँढ़ने वाले न जाने क्या-क्या ढूँढ़ते रहते हैं उनके लिए हमें परेशान होने की ज़रुरत नहीं..

    जिंदगी बड़ी मजेदार चीज़ है,आप उसे जैसे चाहें ले सकते हैं !!

    घुटन की तरह चाहें तो आपकी मर्जी या

    फिर हार जीत की तरह ले ये भी आपकी मर्जी...

    everithing personal ,very personal .....

    वैसे मुझे काफी अच्छा लगा कि आपको मेरी रचना ने इतना सोचने के लिए बाध्य किया...

    शुक्रिया......!!

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  15. यानि‍ दोनों बार जो होना चाहि‍ये वह नहीं हुआ। खैर अब आप को जब मालूम है तो आप वहां जा सकती हैं।

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  16. श्री राजेश कुमार 'नचिकेता'जी के ब्लॉग पर आपकी निश्छल टिपण्णी पढ़ कर आपके ब्लॉग पर आना हुआ.आपकी कोमल भावनाओं की सुंदर
    अभिव्यक्ति दिल को छूती है,आपका और आपके प्रेरणा स्रोत का बहुत बहुत आभार .मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा ' पर आपका स्नेहमय स्वागत है.

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  17. मौन पर मार्मिक अभिव्यक्ति..

    जवाब देंहटाएं
  18. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति


    क्या सच में तुम हो???---मिथिलेश


    यूपी खबर

    न्यूज़ व्यूज तथा भारतीय लेखकों का मंच

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  19. waah maun me utarti hui aapki nazm aur iska asar mere man me utarte hue .. bahut hi acchi rachna , man ko chooti hui..
    salaam kabul kare

    -----------
    मेरी नयी कविता " तेरा नाम " पर आप का स्वागत है .
    आपसे निवेदन है की इस अवश्य पढ़िए और अपने कमेन्ट से इसे अनुग्रहित करे.
    """" इस कविता का लिंक है ::::
    http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
    विजय

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  20. आपने क्रमवार तीन सांचे में वर्ष को उल्लेखित करते हुए मौन' को लिखा है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह व्यक्तिगत धरातल पर लिखी गई भावना है... ! इसके माध्यम से एक सहती दुखियारी स्त्री और एक विलासी पुरुष की छवि उभरती है . और इतने लम्बे काल तक स्त्री अपने मौन को कोई समझाना चाहे ,फिर उसका अपना वजूद नहीं और न तब उसे इस तरह पुरुष को लांछित करने का अधिकार है ! आज दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई और आप मौन के तीन फेज का ज़िक्र कर रही हैं .... शब्दों से खुद को सही नहीं किया जा सकता !

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  21. माँ की अर्चना.....

    यहाँ पर जो भी लिख रहा है...
    व्यक्तिगत धरातल पर ही लिख रहा है...!!
    चाहे उसके अनुभव सामाजिक हों,पारिवारिक हों,या काल्पनिक...!!
    आपके विचारों से मैं सहमत हूँ कोई ज़रूरी नहीं,भले ही वह रचना
    "माँ" के लिए ही आपने कितने ही भाव से लिखी हो !!सबके विचार माँ (किसी भी रूप में)के लिए आप जैसे नहीं भी हो सकते हैं !!यह एक व्यतिगत अनुभव ही है..चाहे वो ज़िन्दगी से लिया हो या फिर काल्पनिक हो !!

    शायद आपने सही ढंग से रचना को नहीं पढ़ा....
    यहाँ न कोई दुखियारी स्त्री दिखाई देती है और न ही
    कोई विलासी पुरुष ही वर्णित किया गया है...स्त्री अपने प्रेम के लिए
    मौन है...और पुरुष की अपनी खोज है..कौन कहाँ पर क्या पाता है...?कहा नहीं जा सकता..!!कोई भी दुखियारी स्त्री इतना साहस नहीं कर सकती कि पुरुष की इस भावना को भी समझे,और पुरुष तो एकदम ही नहीं कर सकता...स्वयं को अपने व्यक्तित्व से अलग कर लें तो सब बखूबी नज़र आ जायेगा !हर किसी के जीवन के अनुभव अलग होते है....आपके भी होंगे...!!आपने जो शब्दों में बयान किया है वह दूसरों के लिए भी सही नहीं हों सकता है...!!मौन अपना वजूद रखता है... और शायद ये आप नहीं समझेंगे....क्योंकि ज्यादातर पुरुष(इसे व्यक्तिगत न ले) शब्दों की भाषा ही समझाते और समझते हैं...कोई बात कहीं ठीक न लगे तो माफ़ी चाहूंगी....!!

    "माँ की अर्चना" करने के लिए आपको धन्यवाद...यदि भाव समझ न आये तो उसके लिए भी क्षमा चाहूंगी...शायद मेरे लिखने में कहीं कोई कमीं रह गई या फिर आप मुझसे ज्यादा समझदार हैं....!!

    मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद...और खुले मन से अपने विचार देने के लिए भी !!

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