साँझ ढले....
पर्वतों के पीछे से आ
नदी को पार कर
जब भी एक छाया
मंदिर की सीढियां
हौले-हौले
गीले क़दमों से
चढ़ती है,
तब....
न जाने क्यूँ
मन करता है
उससे मिलने को.
लेकिन--
जब तक मैं अपने घर से
मंदिर तक का रास्ता पार करता हूँ,
तब तक वह छाया
उसी रास्ते
वापस पर्वतों के पीछे
न जाने कहाँ
गुम हो जाती है,
और मैं-
मंदिर की सीढ़ियों पर
बैठा-बैठा
उसके चढ़ाए गए फूलों की
भीनी-भीनी खुशबू में
उसके बदन की खुशबू को
महसूस करता रहता हूँ !
मंदिर के घंटों की आवाज़ में
उसके बोलों को
सुनता रहता हूँ मैं,
देर तक..................................!!
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जवाब देंहटाएंbahut khub
जवाब देंहटाएंintazar kab tak hum karenge tera
सुन्दर शब्द रचना.
जवाब देंहटाएंसलाम.
निवेदन है पढने के लिए थोड़ा समय दीजिएगा.सुविधा होगी
bahut sunder ehssaas....
जवाब देंहटाएंदिल के सुंदर एहसास
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह आपकी रचना जानदार और शानदार है।
सुन्दर है.
जवाब देंहटाएंपुनम जी
जवाब देंहटाएंसस्नेहाभिवादन !
बहुत ख़ूबसूरत जज़्बातों की तर्ज़ुमानी हुई है आपकी इस नज़्म में !
…उसके चढ़ाए गए फूलों की भीनी भीनी ख़ुशबू में
उसके बदन की ख़ुशबू को महसूस करता रहता हूं…
मंदिर के घंटों की आवाज़ में उसके बोलों को सुनता रहता हूं मैं ,
देर तक …………………… !!
स्वस्थ शिष्ट सौम्य प्रेम का सुंदर चित्रण हुआ है आपकी इस कविता में ।
मन से जुड़ गई है आपकी दी हुई यह अनुभूति !
हार्दिक बधाई स्वीकार करें …
नेट की समस्या के कारण
दो दिन विलंब से ही …
♥ प्रणय दिवस की मंगलकामनाएं ! :)
♥ प्रेम बिना निस्सार है यह सारा संसार !
बसंत ॠतु की भी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सुन्दर रचना है..
जवाब देंहटाएंवाह ...बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
जवाब देंहटाएंआप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद.....
जवाब देंहटाएंsagebob !!
आपका नाम तो नहीं जानती पर पढ़ने
के लिए कितना समय चाहिए आपको?
मैंने कुछ ऐसा तो नहीं लिखा
जिससे आपको कोई
मुश्किल हुई हो...
यदि ऐसा है तो क्षमा करियेगा..
कोई और सुझाव हो तो ज़रूर बताएं...