कुछ दिनों पहले 'जावेद अख्तर' साहेब की ये ग़ज़ल सुनी थी....
आज के परिवेश में एकदम सही सी उतरती ये ग़ज़ल.....
आपकी नज़र.......
बरसों की रस्मो-राह थी, एक रोज़ उसने तोड़ दी
होशियार हम भी कम नहीं,उम्मीद हमने छोड़ दी !
गिरहें पड़ी हैं किस तरह,ये बात है कुछ इस तरह
वो डोर टूटी बारहा, हर बार हमने जोड़ दी !
उसने कहा कैसे हो तुम, बस मैंने लब खोले ही थे
और बात दुनिया की तरफ,जल्दी से उसने मोड़ दी !
वो चाहता है सब कहें, सरकार तो बे-ऐब हैं
जो देख पाए ऐब तो,हर आँख उसने फोड़ दी !