जागते हुए सोना
सोते हुए जागना
बस ऐसी ही होती है
हमारे मन की स्थिति...!
सूरज कब उगा ,
किधर से उगा...
और कब,
किस तरफ डूब गया...!
चाँद निकला तो...
मगर रौशनी थी या नहीं...
देख ही नहीं पाते अक्सर हम ही...!
रौशनी दिखी भी कभी...
तो कहीं दूर.......
किसी दूसरे के आँगन में...!
सूरज चमका तो ज़रूर...
मगर किसी दूसरे की आँखों में...!!
हमारी बोझिल आँखें
अपने आप में,
अपने आस-पास में...
रौशनी देख ही नहीं पातीं...!
चाँद की शीतलता
जो दूसरे के आँगन में पाई...
अपने ही आँगन में वो..
हमें छू तक नहीं पाती...!!
वास्तविकता तो ये है कि
जो नजदीक का देख सके...
हमने वो दृष्टि ही नहीं पाई...!!
नज़रें अपने से कहीं दूर
क्षितिज में गड़ाए बैठे रहते हैं..
वहाँ बादलों में उभरते हुए चेहरों में
सब नजर आता है...
कुछ स्मृतियाँ उभरती हैं...
कुछ ध्वनि-प्रतिध्वनि भी
सुनाई देने लगती है
और फिर नजदीक के
सारे चेहरे लुप्त हो जाते हैं..
पास की कोई ध्वनि सुन सकें
वही कान बहरे हो जाते हैं.....!
जो रिश्ते...
जो सम्बन्ध...
हमीं ने बनाए थे कभी
उन्हीं से बू आने लगती है
और सबके सब अपनी ही
आँखों में धूमिल पड़ जाते हैं..!
उनका अपनत्व विलुप्त हो जाता है
हमारे लिए ही...
और अपने ख्वाब ही
सच्चे लगने लगते हैं हमें...!
फिर जन्म होता है
एक नए सूरज का...
एक नए चाँद और सितारों का...!
मगर कब तक...??
अपनी ही बनायीं पूरी एक दुनिया
एक तरह से हम खुद ही
नकार देते हैं पूरी तरह से....!
अपने ख़्वाबों की दुनिया ही
हमें दैविक लगने लगती है...!
आस-पास की स्तुतियाँ
मंत्रोच्चारण भी...
उस दैविक मंगलाचरण के आगे
फीके पड़ जाते हैं...!
और फिर इस संसार और संबंधों से
मुंह मोड़ना बहुत आसान हो जाता है !
क्यूँ कि वहाँ...
दूर में बहुत कुछ है
जो हमें लुभाता है !
एक दिवास्वप्न जो
जीने का एहसास तो दिलाता है
लेकिन जिया नहीं जा सकता...!
बस ऐसे ही..
जीवन बीत जाता है हम सबका...!
और फिर इसका सारा दोष
हम अक्सर दूसरों को...
परिस्थितियों को...
कभी किस्मत को...
और कुछ न मिले तो...
भगवान को ही दे देते हैं...!!!
दो अलग विश्व साथ साथ चलते हैं।
जवाब देंहटाएंहताशा अकसर दोषारोपण को जन्मती है....
जवाब देंहटाएंगहन रचना..
सस्नेह
अनु
बहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंsundar kavita
जवाब देंहटाएंसही है ॥जो अपने पास है उससे न संतुष्ट होते हैं और न ही महसूस करते हैं ... सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबढ़िया लगी नज़्म...बधाई!
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 11-10 -2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....शाम है धुआँ धुआँ और गूंगा चाँद । .
वाह !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन भावाभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएं:-)
हम एक लुभावने संसार में जीते-जीते खुद के लिए एक राह तलाश तो लेते ही हैं, यह अलग बात है कि वह हमें मंजिल तक ले जाता है या नहीं यह हम जान नहीं पाते।
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जवाब देंहटाएंदिनांक 13/01/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
ऎसा क्यूँ हो जाता है......हलचल का रविवारीय विशेषांक.....रचनाकार...समीर लाल 'समीर' जी
हर चीज़ के दो पहलू होते हैं. सुंदर भाव सुंदर विचार इस बेहतरीन प्रस्तुति में.
जवाब देंहटाएंलोहड़ी, मकर संक्रांति और माघ बिहू की शुभकामनायें.
सुन्दर प्रस्तुति
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