उसने कहा था...
"ये क्यूँ सोचना कि....
कौन,कहाँ,कब,किसके साथ है..?
जो है...बस आज है..!
इसे एन्जॉय करो..
कल क्या हुआ...
उसकी न सोचो...!
यहाँ अपने लिए ही समय की कमी है...
फिर दूसरों के लिए सोचें...
ये किसको पड़ी है...?
जो था...जैसा था...
उसके बारे में सोचना क्या है...?"
फिर मैं सोच में पड़ गयी कि...
उसने जो किया और अब जो कहा...
उसमें सच्चाई कहाँ है...??
जीवन में इंसान के उसूलों की...
उसके अपने संस्कारों की...
फिर कीमत क्या है..?
एक इंसान जो दूसरों को...
पारवारिक संस्कारों और मूल्यों पर
घंटों भाषण दे सकता है...
इंसानी व्यवहार,भावनाओं
और चारित्रिक विषयों पर
बिना रुके न जाने
कई दिनों तक बोल सकता है...
उसके अपने ही जीवन के मूल्य क्या हुए तब...?
उसके अपने संस्कार...अपने उसूल क्या हुए तब...?
वह अपने किये हुए हर काम को
बड़े आराम से justify कर देता है...!
लेकिन....
दूसरों को संस्कार के तराजू में
हर वक्त तोलता रहता है..!
ऐसे व्यक्ति के लिए
अपना किया सब नगण्य हो जाता है...
शायद इसीलिए लिए वो...
हर रात चैन से सो पाता है...!
और मैं....
हर रात उसकी कुछ ऐसी ही बातों को
सोचती रह जाती हूँ...
शायद इसीलिए...
मैं ठीक से सो नहीं पाती हूँ...!
भावपूर्ण कविता
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16 - 07 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2038 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
शुक्रिया
हटाएंसुंदर अहसास !1
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंअंतर्मन का दर्द लिए कविता...
जवाब देंहटाएंआभार
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