तुम...........................मैं
मैं.............................तुम
दोनों के बीच
खालीपन कहाँ....
साझेदारी कहाँ...??
सब समझा हुआ...जाना हुआ
सम्पूर्ण दर्शन है तुम्हारा...
तुम से ही प्रतिबिंबित है
ये पूरा जीवन हमारा...!
तुम तो यही समझते हो कि
तुम्हारी हर सोच...
मुझ पे भारी पड़ती है..
क्यूँ.....???
कभी सोचा है तुमने..??
हम धागे के दो छोर
आपस में जुड़े तो हैं...
लेकिन तुम..
अपना सिरा पकड़े
अपनी ही जगह पर खड़े हो...!
नहीं अड़े हो.....
और अपेक्षा है मुझसे कि
बीच की ये सारी दूरी
मैं अकेले ही तय करूं..!
जीवन का सारा दर्शन,चिंतन और विश्लेषण
सब का सब...
तुम्ह्रारा पढ़ा हुआ,देखा हुआ,भोगा हुआ...
और मैं.......
निरा कोरी....
न कोई दर्शन,न कोई चिंतन...
न ही जीवन का कोई विश्लेषण...!
न कुछ देखा...न पढ़ा....
न कोई अनुभव.....
बस एकदम अछूती...!
अस्पृश्य सी इतनी जिंदगी
जो जी है तुम्हारे साथ....!
फिर इस तुम.......से.........मैं
और मैं...........से...........तुम तक का
सफर कैसा...??
एक लंबी सी खायी...
जो ऊपर से भरी दिखाई देती है...
लेकिन भीतर की गहराई
किसे दिखाई देती है...!
जीवन के सत्य की खोज...
तुम्हारी तुम्हारे लिए ही...
और मेरी खोज मेरे लिए है...!
शायद एक दूसरे के
काम न आ सकेगी कभी भी...!
फिर हर वक्त खुद को दूसरे पे थोपना क्यूँ...?
खुद को बेहतर दिखाना या बताना क्यूँ...??
क्या इसे हमारा पूर्ण हो जाना कहेंगे...???
***पूनम***
बस...अभी अभी....