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शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

सच....



'सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात
न ब्रूयात सत्यं अप्रियम '
क्योंकि मैंने भी
यही जाना है
कि सत्य बोल कर
जितनी चोट पंहुचाई जा सकती है
उतनी झूठ बोल कर नहीं
और शायद मैं इसी लिए चुप रहती हूँ....!!!


5 टिप्‍पणियां:

  1. यही कशमकश अन्दर तक खाये जाती है।

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  2. सच कहा आपने ..!
    लेकिन जब खुद को थोड़ी देर के लिए
    दूसरों की सच्चाई से अलग कर लें !
    उनको उनके झूठ के साथ जीने दें..
    दृष्टा हो कर देखें..दृश्य में खुद को involve न करें...!!
    तो यह कशमश भी नहीं रह जाती है ..

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  3. सही बात है बहुत कड़वा होता है सच......दवा की तरह ........पर भले के लिए.......एक शेर अर्ज़ है........

    'तुम क्या समझे कम लगता है
    सच कहने में दम लगता है"

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  4. बहुत सुन्दर और व्यवहारिक सलाह..सुन्दर प्रस्तुति..

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  5. ना जाने क्यों मुझे लगता है की आपने मौन की भाषा में महारत हासिल कर ली है...आपने जिस साक्षीभाव का जिक्र उपर प्रवीन जी की टिप्पड़ी के जबाब में किया है वह भाव सहज ही नहीं प्राप्त होता |
    आत्मिक विकास के पथ पर ही ऐसी रचनाएँ जन्म लेती हैं...बधाई हो !

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