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शनिवार, 25 दिसंबर 2010


इंसान

कितना नासमझ है ये इंसान !!
अपने मन की थाह नहीं ले पाता
और दूसरों के मन की जानने में 
हमेशा लगा रहता है....
अपने बेचैन मन को कैसे शांत करे?? 
नहीं जानता....
लेकिन- दूसरों को कैसे खुश करे,
जी-जान लगा देता है.
कहते हैं --
जिसके पास जो होता है
वही बांटता है.....
सही है!!
सारी कोशिशों के बावजूद भी
अपने मन की  दशा को 
छुपा नहीं पाता है वह.
कहीं ना कहीं से
उसके अस्तित्व से उसकी मनः-स्थिति  
झांकती-ताकती ही रहती है.
क्योंकि-
चेहरे की हंसी में छिपा दर्द
सामने वाले की नज़रों से छिपता नहीं है,
मन के भाव भी छिपाए नहीं छिपते हैं.
मन को समेटते-समेटते
अन्दर तक कुछ सिकुड़ सा जाता है,
वो बाहर के फैलाव के साथ
कितना भी कोशिश करो 
बराबर नहीं आ पाता है!!
क्यों?
क्योंकि कमजोरी उसके भीतर है,
वह बाहर-भीतर एक सा नहीं है,
स्वाभाविकता कहीं खो गई है.
अपनी चाहतों,एहसासों को जीते-जीते
वह बंध गया है उसी में...
ज़िन्दगी में उमंग लाने के लिए 
इन्हीं एहसासों,
इन्हीं चाहतों की ही तो कमीं थी  
अभी तक---
अब ये एहसास हैं तो
ज़िन्दगी की नई शुरुआत है.
कहीं कुछ छुटा तो
कहीं कुछ मिला भी.
जीने का मकसद..
कुछ करने की इच्छा...
कुछ कर दिखाने का हौसला !
क्या नहीं है ज़िन्दगी में अब !
फिर भी कहीं कुछ missing है..
क्या ?
पता नहीं ?
 जान कर भी जानना नहीं चाहता
कौन समझे और किसको समझाए??
ज़रुरत भी क्या है??
 ऊपर-ऊपर की ज़िन्दगी में तो 
खुश ही दिखता है वह
भीतर की देखने  की किसको फुरसत है?
हर किसी की ज़िन्दगी में
कुछ ऐसा ही घट रहा है रोज़-रोज़--
फिर भी ख़ुशी-ख़ुशी जी रहे हैं सब.
न खुद को जानने की ज़रुरत,न समझने की,
बस इसी तरह ज़िन्दगी जी रहे हैं सब.
कभी किसी के लिए,कभी किसी के लिए !!

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