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सोमवार, 10 सितंबर 2012

रूहें जब मिल जाती हैं.....







बागों में फूलों के रंग
जब खिल खिल जाते हैं...
तितलियाँ गुनगुनाती हैं
मचल मचल जाती हैं..

रात जितनी गहरी होती है
चाँद उतना ही जगमगाता है
चांदनी मुस्कुराती है
रौशनी उतना ही खिलखिलाती है


साँसे जब जब लयबद्ध
हो जाती हैं खुद ब खुद
ये धरती भार विहीन हो
अपनी ही धुरी पर नाचती है

सूरज जब आँख मलते हुए
जगाने आ जाता है तो...
ओस शरमाते हुए
दूब के आँचल में छुप जाती है


और रूहें जब रूहों से
मिल जाती हैं तो...
जिस्म से एक
सुगंध सी बिखर जाती है....!!


११-०९-२०१२
बस अभी अभी
***पूनम सिन्हा***

9 टिप्‍पणियां:

  1. साँसे जब जब लयबद्ध हो जाती हैं
    खुद ब खुदये धरती भार विहीन हो
    अपनी ही धुरी पर नाचती है
    बहुत खूब ! सुन्दर अभिव्यक्ति !

    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in/2012/09/blog-post_4.html

    जवाब देंहटाएं
  2. ओस शरमाते हुए
    द्दोब के आँचल में छिप जाती है ....
    वाह पूनमजी...बहुत सुन्दर अहसास !!!!

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर सुन्दर...........
    बहुत सुन्दर!!

    अनु

    जवाब देंहटाएं
  4. रूह से रूह का मिलन .. रूमानी ! शानदार!

    जवाब देंहटाएं
  5. रूह का रूह से मिलन ही असली मिलन है ...
    बहुत ही प्रेम मय ... डूब के लिखी रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  6. कुछ यूँ पढ़ें ...(ब्लॉग बुलेटिन का हिस्सा )
    बहुत सारी जगहों पर टिप्पणियाँ देने के क्रम में हम मात्र यही बार बार कहते हैं - 'बहुत बढ़िया, आभार' ... समझ ही नहीं आता- कि क्या पढ़ा, क्या समझा ! तो एक प्रयास कुछ ख़ास रचनाओं को यूँ लेने और बताने का ...http://vyakhyaa.blogspot.in/2012/09/blog-post_13.html#comment-form

    "काल के परिवर्तन के साथ सच अपना स्वरुप खोता गया,संबंध अपने मायने खोते गए . आध्यात्म को अनावृत कर सबने अपने अनुसार
    बना लिया-प्यार,व्यभिचार सब एक ही सांचे में ..... कहाँ संभव है ! प्रेम तो बस प्रेम होता है,अश्लीलता से पृथक ... कृष्ण को आज भी नहीं कहना होगा कि मैं कृष्ण हूँ ...
    सत्य तो जंगल में भटक भी जाए तो अपना वजूद नहीं खोता - आज के परिवेश में सांसारिक रंगमंच पर नाटक खेल लेने से कोई पात्र ईश्वर नहीं हो जाता .
    पूनम सिन्हा का यही रोष इस आलेख में है, जो सत्य और असत्य का फर्क बताती है http://punamsinhajgd.blogspot.in/2012/08/blog-post_30.html"......

    राधा और कृष्ण....प्रेम की भावना....एक चेतना स्वरुप...एक दूसरे में समाहित...! प्रेम की वह धारा जो बाहर बहते-बहते अंतर्मुखी हो जाए...जिससे इंसान पूर्णत: प्रेम स्वरुप हो जाए...वह राधा....जो हर इंसान के अंदर है...थोड़ा कम...थोड़ा ज्यादा....लेकिन है सबमें...!!
    बस एक इंसान ही है जो इसका भी वर्गीकरण कर लेता है....!


    शुक्रिया....
    इस बुलेटिन में इतने बड़े बड़े सुधीजनों के बीच मुझे जगह देने के लिए...! इस तरह से किसी भी बुलेटिन पत्रिका में सम्मिलित होने से नए और पुराने कई मित्रों से बराबर संपर्क बना रहता है...और सदैव ज्ञानवर्धन भी होता रहता है...!! मेरा सौभाग्य जो मुझे यहाँ स्थान मिला......!
    जैसा कि पढ़ा,सुना,संपर्क में आने वाले लोगों को देखा,समझा,जाना और जीवन की परिस्थितियों ने दिखाया,बताया और समझाया या हमने समझा....जैसा कि हम सभी समय समय पर महसूस करते हैं या करते रहते हैं.....शायद हम तभी लिख भी पाते हैं..! हो सकता है किसी की लेखनी रोष में चलती हो.....लेकिन मेरी लेखनी इस विषय में आश्चर्य स्वरूप चल गयी है....मेरे इस आलेख की उत्पत्ति रोष के फलस्वरूप कदापि नहीं है...! पूरे आलेख में कहीं भी प्रेम को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में भी व्यभिचार और अश्लीलता का जामा नहीं पहनाया गया है...!! बस कुछ परिस्थितियों और व्यक्तियों की व्यक्तिगत सोच से इस आलेख की रचना हो गयी...हो सकता है आप भी कभी कभी लिखते वक़्त ऐसा ही करते हों...!!
    द्विविधा तब उत्पन्न हो जाती है जब आज के परिवेश में संसार रूपी रंगमंच पर अपने जीवन को नाटक की खेलने वाले पात्र अपनी ही किसी भूमिका में उलझ जाते हैं तो उनके लिए नाटक के दूसरे पात्रों की भूमिका नगण्य हो जाती है...इसी के साथ उनकी अपनी भावनाएं,अपनी सोच,अपना ज्ञान,समाज-परिवार और जीवन में अपना स्थान ही अतिउत्तम और सर्वोपरि लगता है..!
    कुछ ऐसे ही विचारों से इस लेख का भी जन्म हुआ है या हो गया है...! अपने आस पास देखती हूँ तो ऐसे ही कुछ लोगों को पाती हूँ जो जीवन में अपनी भूमिका के लिए छटपटा रहे हैं....किन्तु जीवन में दूसरों की भूमिका,भावनाएं,संवेदनाएं मायने नहीं रखतीं हैं...! जीवन में यदि स्वयं के लिए इस तरह की भूमिका तय करते हैं तो उन्हीं के जीवन में उनके साथ रहने वालों की भी भूमिका इसी तरह की हो तो उनका रवैय्या कैसा होगा...??? अपने लिए जीवन में दोहरी भूमिका,दोहरा चरित्र निभाने वाले लोग अपनी ही सच्चाई को बड़ी आसानी से समाज से छुपा ले जाते हैं और फिर इन उदाहरणों से स्वयं को ही logicaly समझाने में लगे रहते हैं...!!
    बस यह आलेख इसी भावना से लिखा गया है....कि हम जिन पात्रों के जीवन या जीवनी से स्वयं के जीवन या जीवनी को मिलाते हैं...उनके जैसी सच्चाई भी हम अपने जीवन में उतारें...! यहाँ न किसी सम्बन्ध की अश्लीलता है का उल्लेख है और न किसी प्रकार का रोष का प्रदर्शन.....!
    हो सकता है कि पढ़ने वाले इस लेख को रोष के साथ पढ़ें और उन्हें इस लेख में रोष ही नज़र आये.....!!

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