गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

बस यूँ... ही...



 
"तटस्थता"....
मन की ?
शरीर की ?
भावनाओं की ?
संभावनाओं की ?
इसे यदि हम नीचे से शुरू करें तो संभावनाओं से देखना होगा, फिर क्रमश: ऊपर के तरफ जाएँ तो विकलता बढ़ती जाएगी
और फिर सिलसिला शुरू होता है तनाव का, restlessness और emotional  unrest का... !
शुरूआत ज़िन्दगी  की ऐसे ही होती है सभी की...अपने जीवन से संभावनाओं को जोड़ कर हर इंसान उतरोत्तर भावनाओं से उलझता है..!
शारीरिक उत्तेजनाओं  में फंसता है....! reslessness-frustration और न जाने क्या-क्या होता है शारीरिक तौर पर......!
फिर शुरुआत होती है मन की विकलता की और उससे जुड़ी ढेर सारी भावनात्मक उथल-पुथल..!
फिर समय आता है की इन सब से भी इंसान उकता जाता  है कि कितनी..कितनी...कितनी भागादौड़ी ? किसके लिए ? और क्यूँ ?
क्यूँ कि सभी अपनी-अपनी भागादौड़ी में लगे हुए हैं,किसी की फ़िक्र नहीं सिवाय अपने.. !! अपनी भावनाएं...अपनी संवेदनाएं...अपनी अनुभूति..अपने एहसास...बस...!
समय भागता रहता है और एक समय आता है कि इससे भी इंसान थक जाता है फिर आती है तटस्थता..वैराग्य..विराग..stability या जो चाहे कह लें..!
समझ में आने लगता है कुछ-कुछ कि इन सबसे कुछ नहीं मिला.. हम वहीँ के वहीँ हैं जहाँ से चले थे.. इतने लम्बे समय हम केवल भागते-दौड़ते रहे कभी अपने लिए, कभी दूसरों के लिए..!
अपने emotions और दूसरों के emotions और ज़रूरतों को दबाते...बस चलते गए..!
इतने समय बाद कुछ-कुछ या थोड़ा या बहुत कुछ समझ में आने लगता है..कुछ दिखता है जो अब तक अनदेखा  था,कुछ ऐसा भी जो नहीं देखना-समझना चाहिए था....!
सब कुछ उथल-पुथल थोड़े समय के लिए और फिर मन अपने आप स्थिर होता जाता है कि कुछ भी अपने हाथ में नहीं है.जो चाहा...कुछ हुआ,कुछ नहीं !
कारण देखना-जानना ज़रूरी नहीं बस जैसा है अब...! जो है अब...! सब सही है ! ज़िंदगी ऐसे मोड़ पर आई है जहाँ सारी समझदारी, सारा ज्ञान,सारे अनुभव-अनुभूति
एक किनारे धरे रह जाते हैं...socialy एक स्थान पर पहुँचने के बाद भी हमारे भीतर कुछ है जो कहीं पहुँच नहीं पाया है..ऐसा लगने लगता है.
कुछ लोग उसे पाने के लिए...खोजने के लिए निकल पड़ते हैं...किसी स्थान,किसी व्यक्ति विशेष की खोज...जो उनके अन्दर की अपूर्णता को,
उनके भीतर की किसी कमी को पूर्ण कर सके..और कुछ को यह समझ में आने लगता है कि इतना सब होने पर भी अगर कहीं कुछ कमी है..
तो फिर है...! ऐसा ही है..! ऐसा ही होना है..! तो फिर इतनी परेशानी क्यूँ ? reslessness क्यूँ ? और यहीं से शुरू होती है तटस्थता ! "जो है ..जैसा है... बस है !!"
                                     ॐ शांति....! शांति....! शांति....!

14 टिप्‍पणियां:

  1. जब कर्म में ही शान्ति मिलने लगती है तो वही निर्वाण की स्थिति हो जाती है।

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  2. गहन भाव.........आधात्मिकता के भाव जगती ये पोस्ट......मुझे ऐसा लगा जैसे ये मेरे ब्लॉग जज़्बात की नयी पोस्ट ....कठोर राहें.....का भावार्थ है .........बहुत सुन्दर |

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  3. जो है जैसा है बस ..यदि यह समझ आ जाये तो सारे तनाव खत्म हो जाएँ ..

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  4. जिस दिन ये भाव आ जायें उसी दिन से जिन्दगी सहज और सरल हो जाती है।

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  5. इस भाव का उदगम स्थल हमारा सनातन हिन्दू धर्म हैं..
    उसका पालन करने से मन शांत और ब्याधिय दूर जाती रहेंगी..

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  6. आधात्मिकता के भाव जगती
    एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
    यही विशे्षता तो आपकी अलग से पहचान बनाती है!

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  7. बहुत ही सार्थक लेखन.
    जो है,जैसा है,बस है.
    अपेक्षा ही restlessness लाती है.
    कर्म तो होना ही चाहिए,अपेक्षाएं शून्य हों.
    बस.
    फिर शान्ति ही शान्ति.

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  8. जब तक हमारे मन की कामनायें अधूरी रहेंगी, हमारी जिजीविषायें बढ़ती रहेंगी हमें कभी संतोष नहीं होगा ! स्वीकार का भाव जब मन में आ जाता है और वह पूर्ण रूप से निरपेक्ष हो जाता है तटस्थता और शान्ति स्वयमेव आ जाती है ! बहुत गहन प्रस्तुयी ! बधाई !
    आप इंटरनेट सर्फिंग के लिये जो प्रोग्राम यूज करती हैं उसे बदल कर देखिये ! एक बार ओपरा यूज करने पर मुझे भी इसी समस्या का सामना करना पड़ा था ! जब मोज़िला फायरफोक्स से खोला तो ठीक हो गया ! आप भी ट्राई करिये शायद आपकी समस्या का समाधान भी हो जाये ! गुडलक !

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  9. बहुत ही बढ़िया.. सार्थक रचना के लिए आभार ..

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  10. "आध्यात्म" से परिपूर्ण रचना । बहुत गहन विचार ।

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  11. bahut hi achchha likha hai aapne ....

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