मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

तुम्हें ये हक दिया किसने दीयों के दिल दुखाने का...








चला है सिलसिला कैसा ये रातों को मनाने का 
तुम्हें ये हक दिया किसने दीयों के दिल दुखाने का...!!

इरादा छोड़िये अपनी हदों से दूर जाने का 
जमाना है ज़माने की निगाहों में न आने का...!!

कहाँ की दोस्ती किन दोस्तों की बात करते हो 
मियाँ दुश्मन नहीं मिलता कोई अब तो ठिकाने का...!!

निगाहों में कोई भी दूसरा चेहरा नहीं आया
भरोसा ही कुछ ऐसा था तुम्हारे लौट आने का...!!

ये मैं ही था बचा कर खुद को ले आया किनारे तक
समंदर ने बहुत मौका दिया था डूब जाने का...!!





           *वासिम बरेलवी साहेब*

न जाने क्यूँ ये गज़ल आज बार बार याद आ रही है...
तो सोचा क्यूँ न साझा कर लूँ आप सबके साथ......!


3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब ... भरोसा ही कुछ ऐसा था ...
    बहुत ही लाजवाब शेर हैं सभी ... दिल को छूते हुए ...

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  2. सुभानाल्लाह हर शेर उम्दा | पहला वाला तो बहुत ही बढ़िया |

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