मंगलवार, 11 जून 2013
रविवार, 9 जून 2013
आज के परिवेश में कृष्ण,राधा और मीरा......
फिर से एक पुरानी पोस्ट आपके सामने है....!
बड़े दिनों के बाद अपनी ही एक पोस्ट ने मुझे फिर सोचने को मजबूर कर दिया ...साथ ही लोगों के विचार और प्रतिक्रिया भी बहुत कुछ कह रही है...! न चाहते हुए भी कभी कभी हम कुछ ऐसा लिख जाते हैं जो समय,काल और परिस्थिति के सर्वथा उपयुक्त होता है....!
कुछ सम्मानित लोगों की राय विचारणीय है......!!
आज के परिवेश में कृष्ण,राधा और मीरा......
कई दिनों से सोच रही थी कि इस विषय पर कुछ लिखूं...अक्सर लोगों को उदाहरण देते सुनती हूँ, देखती हूँ या यूँ समझ लीजिए कि एक तरह से खुद और दूसरों के प्रेम की तुलनात्मक व्याख्या करते देखती हूँ कृष्ण-राधा के प्रेम से और मीरा के प्रेम से....!! समझ नहीं आता ये ऐसा क्यूँ कर करते हैं....?? प्रेम प्रेम होता है और हमेशा अपनी तरह का होता है....! न राधा ने मीरा की तरह किया...न मीरा ने राधा की तरह...और न ही कृष्ण ने किसी की तरह....! फिर हम ही क्यूँ सारा समय अपने या किसी और के प्रेम को उनसे या फिर किसी से मिलाने में लगे रहते हैं...?? हम अपनी तरह प्रेम क्यूँ नहीं कर सकते....?? एक इंसान की तरह....! शायद हमारे पास इस बारे में सोचने का वक़्त बहुत ज्यादा है क्यूँ कि जो प्रेम करता है वो बस प्रेम ही करता है...खुद को या किसी और को किसी से मिलाता नहीं...! दरअसल उसके पास वक्त ही नहीं रहता इन सब बातों के लिए...!!
बेचारे कृष्ण-राधा भी परेशान होंगे कि वो क्या कर गए...जो आज का इंसान अपने प्रेम की तुलना उनके प्रेम से करता है....! आप अपने अगल-बगल नज़र डालेंगे तो देखने में आएगा कि युवा ज्यादातर लैला-मजनू और रोमियो-जूलियट की बातें करते हैं...वैसे भी वो इन सब उदाहरणों में नहीं उलझते क्यूंकि जब वो प्रेम करते हैं तो उनका केंद्र एकमात्र उनका प्रेम ही होता है !! फिर इस तरह के प्रेम की बातें करता कौन है ?? समाज में ज्यादातर कृष्ण-राधा को उदाहरण स्वरुप कौन प्रस्तुत करता है..?? हाँ...याद आया...सबसे ज्यादा हिम्मत तो प्रो.बटुकनाथ और उनकी शिष्या जुली ने दिखाई जो इस प्रेम के ज्वलंत उदाहरण हैं....बाकी सब चोरी छुपे करते हैं और केवल बातें ही करते है इस तरह के प्रेम की...! एक ऐसा प्रेम जिसके बारे में उन्होंने सुना है, कल्पना की है....जिसे वो जी न सके और उसे ही जीने का ख्वाब देखते हुए बाकी की जिंदगी बिता रहे हैं...!! फिर खुद को समझाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है तो कृष्ण-राधा क्या बुरे हैं...! अब शादीशुदा स्त्री या पुरुष आज के दिन में छुपा के ही प्रेम करेंगे न ! तमाम तरह के बंधन हैं उनके ऊपर....पारिवारिक...सामाजिक..सामा जिक प्रतिष्ठा..और भी न जाने कितने !! अब इतनी बातों को दांव पे तो लगा नहीं सकते...बस अपने आप को justify करने का और खुद को guilt से निकालने का एक सरल,सहज और उत्तम तरीका है कि इस प्रेम को राधा-कृष्ण से जोड़ दीजिए, अपने इस प्रेम को आध्यात्मिक दिखाइए ...बताइए...खुद को समझाइये और खुद को हर बात से मुक्त कर लीजिए...!
जैसा कि हम जानते हैं कि राधा और मीरा दोनों ही विवाहित थीं और अपने प्रेम और भक्ति ( मीरा के लिए ) के प्रति आस्था और समर्पण था उनमें..! कोई चोरी न थी...न ही परिवार के लोगों से छलावा....मीरा अपने साथ कृष्ण की मूर्ति ले कर ही ससुराल गयीं थीं और राधा घर के कामकाज के बीच में ही मुरली की धुन सुन कर चल देती थीं न कि चोरी-चुपके या किसी से छुपा के...!! आज जब राधा-मीरा के प्रेम की बात होते देखती हूँ लोगों के बीच तो समझ नहीं पाती हूँ कि अपने प्रति हम कितने सच्चे हैं...अपने प्रेम के प्रति कितने सच्चे हैं.....और अपने संबंधों के प्रति हम कितने सच्चे हैं....! हमें क्या हक है कि हम कृष्ण,मीरा और राधा से तुलना करें अपनी जबकि हमारी सच्चाई कुछ और ही है...उनसे एकदम भिन्न...! लेकिन हम भी मजबूर हैं.......अपने लिए तो उदाहरण भी एकदम ऊंची श्रेणी का ही चुनते हैं !
देखा जाए तो उस समय भी तो इन संबंधों को मान्यता नहीं दी जाती थी....न दी गयी थी....! इन प्रेम प्रसंगों में भी कई तरह की बातें आती हैं सामने...मीरा और राधा के साथ उनके घर वालों का सलूक (अगर ये बात सच है तो ) उदाहरण है इसका..! फिर भी देखा जाए तो कृष्ण ने कभी भी चुपके से बांसुरी नहीं बजायी थी और न ही चोरी से रास ही रचाया था राधा और गोपियों के संग...उनकी मुरली की तान थी ही इतनी मोहक कि लोग खींचे चले जाते थे...क्या पशु-पक्षी क्या इंसान...!! अब इसमें बेचारी राधा और गोपियां बेबात बदनाम हो गयीं...!! और अगर ये बात सच है तो उस समय जो हाल उन सबका हुआ था अगर आज भी वैसी ही परिस्थिति हो जाये तो आप भी वैसा ही करेंगे शायद!
अब आप कल्पना कर के देखिये कि आपका पति या आपकी पत्नी आपको घर में छोड़ कर किसी अन्य पुरुष या स्त्री के साथ नृत्य समारोह में जाए और रात में देर से घर आये तो क्या आप उसे राधा या कृष्ण मान कर घर में बड़े प्रेम से आने देंगे...और कितने दिन तक ?? अब आप कहेंगे कि उनकी बात अलग थी...उनके प्रेम का स्वरुप अलग था लेकिन आप कैसे अपने पति या पत्नी के प्रेम के स्वरुप को पहचानेंगे...क्या आप में भी वो दिव्य दृष्टि है जिससे कि आप उनके प्रेम को सही मान कर स्वीकारे या गलत मान कर नकार दें...! यदि आपकी पत्नी या पति अपने पहले प्रेमी की फोटो लेकर के आपके बेडरूम में लगा दे और सारा समय उसी में लीन रहे तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी.....!! अब आप ही सोचिये कि आज अगर सचमुच में भी आकर कृष्ण बांसुरी बजाएं और आपकी पत्नी अभिभूत हो कर सब काम-धाम छोड़ कर रोज रासलीला के लिए चली जाए घर से...और लौट के जब आये तो आप उसे बड़े प्रेम से स्वागत करेंगे.....!....फिर ऐसी परिस्थिति में क्यूँ आज प्रेमी से मिल कर लौटी पत्नी आप को राधा नहीं लगेगी...या लगती है...!
भले ही प्रेम का स्वरुप मान कर आप राधा कृष्ण की पूजा करें...लेकिन सही मानिये तो ये आपसे भी संभव नहीं होगा....! अब ऐसे में फिर कोई उपाय नहीं बचता कि इस तरह के प्रेम को समाज से...घर वालों से छुपाया जाए क्यूँ कि इसके सार्वजानिक होने से आपकी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा पर आंच आती है...और यहीं पर हम राधा-कृष्ण का उदाहरण देते नज़र आते हैं क्यूँ कि इस तरह के प्रेम के लिए हमें उनसे बेहतर उदाहरण नहीं मिलता जिससे हम अपनी नज़र में ऊँचे बने रहें और समाज की नज़र में साफ़-सुथरे...! आज हम, हमारी परिस्थिति और हमारी मन:स्थिति उनसे सर्वथा और सर्वदा भिन्न है फिर भी बड़ी आसानी से एक तरह से हम अपने आप को justify कर लेते हैं और guilt से भी बच जाते हैं....लेकिन जिन कृष्ण,राधा और मीरा की बात करते हम नहीं आघाते उनकी तरह के प्रेम से उतनी ही दूर होते जाते हैं क्यूँ कि हममें उनकी तरह समाज और परिवार की अवहेलना सहने की शक्ति ही नहीं होती है...! बड़े मज़े की बात तो यह है कि किसी दूसरे के प्रेम को देखने में हमारी यही उदार सोच संकीर्ण हो जाती है ! असल में हम अपने अलावा किसी और में कृष्ण,राधा और मीरा देखने की दृष्टि ही नहीं पा सके....संकुचित दृष्टि और सीमित सोच..! क्यूँ नहीं राह चलते एक नटखट बालक को ( जिसे हम बदमाश कहते हैं ) किसी बालिका ( गोपिका ) का दुपट्टा खींचने पर कृष्ण की उपाधि दे पाते...पास पड़ोस की आंटी जी के यहाँ से अपनापन में कुछ भी उठा लेने पर एक बच्चे में ( जिसे हम असभ्य कहते हैं ) बाल कृष्ण का रूप नहीं देख पाते....अपने प्रेमी से मिल कर लौटी अपनी ही पत्नी में ( जिसे हम बदचलन कहते हैं ) राधा सा निश्छल प्रेम का स्वरुप नहीं देख पाते...??? दरअसल हमने अपने जीवन में दोहरे मापदंड बनाये हैं...अपने लिए कुछ और और दूसरों के लिए कुछ और ...!! लेकिन जब इसी तरह की परिस्थिति हमारे अपने सामने आये तो मीरा,राधा-कृष्ण ने अपने प्रेम के सारे दरवाजे हमारे लिए खुले छोड़ दिए हैं...!
प्रेम के उदाहणार्थ हम बात करते हैं कृष्ण,राधा और मीरा की....!! हमें मालूम है कि इस संसार में मीरा की भक्ति सर्वोपरि है...एक ऐसी भक्ति जिसमें अपने आराध्य के लिए सर्वस्व समर्पण की उद्दाम शक्ति और कामना थी....जिन्हें कृष्ण भक्ति और प्रेम के आगे कुछ भी नहीं सूझा...न परिवार...न संसार....! कहीं कोई छुपाव-दुराव नहीं था...न परिवार से...न ही संसार से ! एक निश्छल...स्वच्छ...निर्बाध भक्ति और प्रेम...! कितने कष्ट उठाये मीरा ने कृष्ण-भक्ति और प्रेम ( हम ईश्वर से भी प्रेम ही करते हैं ) के लिए...ये किसी से छुपा नहीं है...! आज किसके पास है इस तरह का प्रेम...किसके पास ऐसी भक्ति..?? राधा और कृष्ण....प्रेम की भावना....एक चेतना स्वरुप...एक दूसरे में समाहित...! प्रेम की वह धारा जो बाहर बहते-बहते अंतर्मुखी हो जाए...जिससे इंसान पूर्णत: प्रेम स्वरुप हो जाए...वह राधा....जो हर इंसान के अंदर है...थोड़ा कम...थोड़ा ज्यादा....लेकिन है सबमें...!! बस एक इंसान ही है जो इसका भी वर्गीकरण कर लेता है....!
सबसे ज्यादा द्विविधा तब हो जाती है जब हम उन्हें एक चरित्र समझ कर अपनी ही परिस्थिति, अपनी मन:स्थिति में उनका समावेश करने लगते हैं....अब खुद को आप जब कृष्ण या राधा या मीरा मानने लगिये तो सोच लीजिए कि क्या हाल होगा....! पहले उनके जैसी सच्चाई तो हम उतारे अपने जीवन में, अपने संबंधों में...फिर बात करें तो उचित होगा ! उम्मीद तो हमें अपने हर संबद्ध से नैसर्गिक प्रेम की ही होती है परन्तु जब संबंधों की नींव ही झूठ,छलावे और चोरी के आधार पर रखी गयी हो तो उनमें कृष्ण सा प्रेम कहाँ और राधा सा समर्पण कहाँ...या मीरा सी भक्ति कहाँ.....???
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कुछ यूँ पढ़ें...
http://vyakhyaa.blogspot.in/2012/09/blog-post_13.html#comment-form
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काल के परिवर्तन के साथ सच अपना स्वरुप खोता गया,संबंध अपने मायने खोते गए . आध्यात्म को अनावृत कर सबने अपने अनुसार बना लिया-प्यार,व्यभिचार सब एक ही सांचे में.....कहाँ संभव है ! प्रेम तो बस प्रेम होता है,अश्लीलता से पृथक... कृष्ण को आज भी नहीं कहना होगा कि मैं कृष्ण हूँ ...!
सत्य तो जंगल में भटक भी जाए तो अपना वजूद नहीं खोता - आज के परिवेश में सांसारिक रंगमंच पर नाटक खेल लेने से कोई पात्र ईश्वर नहीं हो जाता .
पूनम सिन्हा का यही रोष इस आलेख में है, जो सत्य और असत्य का फर्क बताती है http://punamsinhajgd. blogspot.in/2012/08/blog-post_ 30.html
राधा और कृष्ण....प्रेम की भावना....एक चेतना स्वरुप...एक दूसरे में समाहित...! प्रेम की वह धारा जो बाहर बहते-बहते अंतर्मुखी हो जाए...जिससे इंसान पूर्णत: प्रेम स्वरुप हो जाए...वह राधा....जो हर इंसान के अंदर है...थोड़ा कम...थोड़ा ज्यादा....लेकिन है सबमें...!!
बस एक इंसान ही है जो इसका भी वर्गीकरण कर लेता है....!
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शुक्रिया....
इस बुलेटिन में इतने बड़े बड़े सुधीजनों के बीच मुझे जगह देने के लिए...! इस तरह से किसी भी बुलेटिन पत्रिका में सम्मिलित होने से नए और पुराने कई मित्रों से बराबर संपर्क बना रहता है...और सदैव ज्ञानवर्धन भी होता रहता है...!! मेरा सौभाग्य जो मुझे यहाँ स्थान मिला......!!
जैसा कि पढ़ा,सुना,संपर्क में आने वाले लोगों को देखा,समझा,जाना और जीवन की परिस्थितियों ने दिखाया,बताया और समझाया या हमने समझा....जैसा कि हम सभी समय समय पर महसूस करते हैं या करते रहते हैं.....शायद हम तभी लिख भी पाते हैं..! हो सकता है किसी की लेखनी रोष में चलती हो.....लेकिन मेरी लेखनी इस विषय में आश्चर्य स्वरूप चल गयी है....मेरे इस आलेख की उत्पत्ति रोष के फलस्वरूप कदापि नहीं है...! पूरे आलेख में कहीं भी प्रेम को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में भी व्यभिचार और अश्लीलता का जामा नहीं पहनाया गया है...!! बस कुछ परिस्थितियों और व्यक्तियों की व्यक्तिगत सोच से इस आलेख की रचना हो गयी...हो सकता है आप भी कभी कभी लिखते वक़्त ऐसा ही करते हों...!!
द्विविधा तब उत्पन्न हो जाती है जब आज के परिवेश में संसार रूपी रंगमंच पर अपने जीवन को नाटक की खेलने वाले पात्र अपनी ही किसी भूमिका में उलझ जाते हैं तो उनके लिए नाटक के दूसरे पात्रों की भूमिका नगण्य हो जाती है...इसी के साथ उनकी अपनी भावनाएं,अपनी सोच,अपना ज्ञान,समाज-परिवार और जीवन में अपना स्थान ही अतिउत्तम और सर्वोपरि लगता है..!
कुछ ऐसे ही विचारों से इस लेख का भी जन्म हुआ है या हो गया है...! अपने आस पास देखती हूँ तो ऐसे ही कुछ लोगों को पाती हूँ जो जीवन में अपनी भूमिका के लिए छटपटा रहे हैं....किन्तु जीवन में दूसरों की भूमिका,भावनाएं,संवेदनाएं मायने नहीं रखतीं हैं...! जीवन में यदि स्वयं के लिए इस तरह की भूमिका तय करते हैं तो उन्हीं के जीवन में उनके साथ रहने वालों की भी भूमिका इसी तरह की हो तो उनका रवैय्या कैसा होगा...??? अपने लिए जीवन में दोहरी भूमिका,दोहरा चरित्र निभाने वाले लोग अपनी ही सच्चाई को बड़ी आसानी से समाज से छुपा ले जाते हैं और फिर इन उदाहरणों से स्वयं को ही logicaly समझाने में लगे रहते हैं...!!
बस यह आलेख इसी भावना से लिखा गया है....कि हम जिन पात्रों के जीवन या जीवनी से स्वयं के जीवन या जीवनी को मिलाते हैं...उनके जैसी सच्चाई भी हम अपने जीवन में उतारें...! यहाँ न किसी सम्बन्ध की अश्लीलता है का उल्लेख है और न किसी प्रकार का रोष का प्रदर्शन.....!
हो सकता है कि पढ़ने वाले इस लेख को रोष के साथ पढ़ें और उन्हें इस लेख में रोष ही नज़र आये.....!!
इस बुलेटिन में इतने बड़े बड़े सुधीजनों के बीच मुझे जगह देने के लिए...! इस तरह से किसी भी बुलेटिन पत्रिका में सम्मिलित होने से नए और पुराने कई मित्रों से बराबर संपर्क बना रहता है...और सदैव ज्ञानवर्धन भी होता रहता है...!! मेरा सौभाग्य जो मुझे यहाँ स्थान मिला......!!
जैसा कि पढ़ा,सुना,संपर्क में आने वाले लोगों को देखा,समझा,जाना और जीवन की परिस्थितियों ने दिखाया,बताया और समझाया या हमने समझा....जैसा कि हम सभी समय समय पर महसूस करते हैं या करते रहते हैं.....शायद हम तभी लिख भी पाते हैं..! हो सकता है किसी की लेखनी रोष में चलती हो.....लेकिन मेरी लेखनी इस विषय में आश्चर्य स्वरूप चल गयी है....मेरे इस आलेख की उत्पत्ति रोष के फलस्वरूप कदापि नहीं है...! पूरे आलेख में कहीं भी प्रेम को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में भी व्यभिचार और अश्लीलता का जामा नहीं पहनाया गया है...!! बस कुछ परिस्थितियों और व्यक्तियों की व्यक्तिगत सोच से इस आलेख की रचना हो गयी...हो सकता है आप भी कभी कभी लिखते वक़्त ऐसा ही करते हों...!!
द्विविधा तब उत्पन्न हो जाती है जब आज के परिवेश में संसार रूपी रंगमंच पर अपने जीवन को नाटक की खेलने वाले पात्र अपनी ही किसी भूमिका में उलझ जाते हैं तो उनके लिए नाटक के दूसरे पात्रों की भूमिका नगण्य हो जाती है...इसी के साथ उनकी अपनी भावनाएं,अपनी सोच,अपना ज्ञान,समाज-परिवार और जीवन में अपना स्थान ही अतिउत्तम और सर्वोपरि लगता है..!
कुछ ऐसे ही विचारों से इस लेख का भी जन्म हुआ है या हो गया है...! अपने आस पास देखती हूँ तो ऐसे ही कुछ लोगों को पाती हूँ जो जीवन में अपनी भूमिका के लिए छटपटा रहे हैं....किन्तु जीवन में दूसरों की भूमिका,भावनाएं,संवेदनाएं मायने नहीं रखतीं हैं...! जीवन में यदि स्वयं के लिए इस तरह की भूमिका तय करते हैं तो उन्हीं के जीवन में उनके साथ रहने वालों की भी भूमिका इसी तरह की हो तो उनका रवैय्या कैसा होगा...??? अपने लिए जीवन में दोहरी भूमिका,दोहरा चरित्र निभाने वाले लोग अपनी ही सच्चाई को बड़ी आसानी से समाज से छुपा ले जाते हैं और फिर इन उदाहरणों से स्वयं को ही logicaly समझाने में लगे रहते हैं...!!
बस यह आलेख इसी भावना से लिखा गया है....कि हम जिन पात्रों के जीवन या जीवनी से स्वयं के जीवन या जीवनी को मिलाते हैं...उनके जैसी सच्चाई भी हम अपने जीवन में उतारें...! यहाँ न किसी सम्बन्ध की अश्लीलता है का उल्लेख है और न किसी प्रकार का रोष का प्रदर्शन.....!
हो सकता है कि पढ़ने वाले इस लेख को रोष के साथ पढ़ें और उन्हें इस लेख में रोष ही नज़र आये.....!!
***पूनम***
सहनशक्ति.....
ऐसा भी होता है जिंदगी में अक्सर...
जब लोग लगाते हैं तोहमतें हम पर....
बेवजह.....नाहक......बेबाक....!
और हम कुछ कह नहीं पाते....!!
ऐसा नहीं कि हमें
कुछ कहना नहीं आता...!!
फिर न जाने क्या सोच कर
हम चुपचाप रह जाते हैं...!
हम नहीं चाहते कि...
वैसी ही चोट उन्हें भी लगे...
जैसी चोट उन्होंने हमें पहुँचाई है...!
क्यूँ कि लोग खुद से बदगुमान हैं...
सहन न कर पाने की
अपनी ही शक्ति से अनजान हैं...!