सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

स्वप्न......






जागते हुए सोना
सोते हुए जागना
बस ऐसी ही होती है
हमारे मन की स्थिति...! 
सूरज कब उगा ,
किधर से उगा...
और कब,
किस तरफ डूब गया...!
चाँद निकला तो...
मगर रौशनी थी या नहीं...
देख ही नहीं पाते अक्सर हम ही...!
रौशनी दिखी भी कभी... 
तो कहीं दूर.......
किसी दूसरे के आँगन में...!
सूरज चमका तो ज़रूर...
मगर किसी दूसरे की आँखों में...!!
हमारी बोझिल आँखें 
अपने आप में,
अपने आस-पास में...
रौशनी देख ही नहीं पातीं...!
चाँद की शीतलता 
जो दूसरे के आँगन में पाई...
अपने ही आँगन में वो..
हमें छू तक नहीं पाती...!!
वास्तविकता तो ये है कि 
जो नजदीक का देख सके... 
हमने वो दृष्टि ही नहीं पाई...!!
नज़रें अपने से कहीं दूर 
क्षितिज में गड़ाए बैठे रहते हैं..
वहाँ बादलों में उभरते हुए चेहरों में 
सब नजर आता है...
कुछ स्मृतियाँ उभरती हैं...
कुछ ध्वनि-प्रतिध्वनि भी 
सुनाई देने लगती है 
और फिर नजदीक के 
सारे चेहरे लुप्त हो जाते हैं..
पास की कोई ध्वनि सुन सकें 
वही कान बहरे हो जाते हैं.....!
जो रिश्ते...
जो सम्बन्ध...
हमीं ने बनाए थे कभी  
उन्हीं से बू आने लगती है 
और सबके सब अपनी ही 
आँखों में धूमिल पड़ जाते हैं..!
उनका अपनत्व विलुप्त हो जाता है 
हमारे लिए ही...
और अपने ख्वाब ही 
सच्चे लगने लगते हैं हमें...!
फिर जन्म होता है 
एक नए सूरज का...
एक नए चाँद और सितारों का...!
मगर कब तक...??
अपनी ही बनायीं पूरी एक दुनिया
एक तरह से हम खुद ही  
नकार देते हैं पूरी तरह से....!
अपने ख़्वाबों की दुनिया ही 
हमें दैविक लगने लगती है...!
आस-पास की स्तुतियाँ
मंत्रोच्चारण भी...
उस दैविक मंगलाचरण के आगे 
फीके पड़ जाते हैं...!
और फिर इस संसार और संबंधों से 
मुंह मोड़ना बहुत आसान हो जाता है !
क्यूँ कि वहाँ...
दूर में बहुत कुछ है 
जो हमें लुभाता है !
एक दिवास्वप्न जो 
जीने का एहसास तो दिलाता है
लेकिन जिया नहीं जा सकता...!
बस ऐसे ही.. 
जीवन बीत जाता है हम सबका...!
और फिर इसका सारा दोष 
हम अक्सर दूसरों को...
परिस्थितियों को...
कभी किस्मत को...
और कुछ न मिले तो... 
भगवान को ही दे देते हैं...!!!






13 टिप्‍पणियां:

  1. हताशा अकसर दोषारोपण को जन्मती है....

    गहन रचना..
    सस्नेह
    अनु

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  2. सही है ॥जो अपने पास है उससे न संतुष्ट होते हैं और न ही महसूस करते हैं ... सुंदर प्रस्तुति

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  3. हम एक लुभावने संसार में जीते-जीते खुद के लिए एक राह तलाश तो लेते ही हैं, यह अलग बात है कि वह हमें मंजिल तक ले जाता है या नहीं यह हम जान नहीं पाते।

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  4. दिनांक 13/01/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    ऎसा क्यूँ हो जाता है......हलचल का रविवारीय विशेषांक.....रचनाकार...समीर लाल 'समीर' जी

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  5. हर चीज़ के दो पहलू होते हैं. सुंदर भाव सुंदर विचार इस बेहतरीन प्रस्तुति में.

    लोहड़ी, मकर संक्रांति और माघ बिहू की शुभकामनायें.

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