गुरुवार, 30 अगस्त 2012

आज के परिवेश में कृष्ण,राधा और मीरा......




आज के परिवेश में कृष्ण,राधा और मीरा......
            


                                     कई दिनों से सोच रही थी कि इस विषय पर कुछ लिखूं...अक्सर लोगों को उदाहरण देते सुनती हूँ, देखती हूँ या यूँ समझ लीजिए कि एक तरह से खुद और दूसरों के प्रेम की तुलनात्मक व्याख्या करते देखती हूँ  कृष्ण-राधा के प्रेम से और मीरा के प्रेम से....!! समझ नहीं आता ये ऐसा क्यूँ कर करते हैं....??  प्रेम प्रेम होता है और हमेशा अपनी तरह का होता है....! न राधा ने मीरा की तरह किया...न मीरा ने राधा की तरह...और न ही कृष्ण ने किसी की तरह....! फिर हम ही क्यूँ सारा समय अपने या किसी और के प्रेम को उनसे या फिर किसी से मिलाने में लगे रहते हैं...??  हम अपनी तरह प्रेम क्यूँ नहीं कर सकते....??  एक इंसान की तरह....! शायद हमारे पास इस बारे में सोचने का वक़्त बहुत ज्यादा है क्यूँ कि जो प्रेम करता है वो बस प्रेम ही करता है...खुद को या किसी और को किसी से मिलाता नहीं...! दरअसल उसके पास वक्त ही नहीं रहता इन सब बातों के लिए...!!
                                                                         बेचारे कृष्ण-राधा भी परेशान होंगे कि वो क्या कर गए...जो आज का इंसान अपने प्रेम की तुलना उनके प्रेम से करता है....! आप अपने अगल-बगल नज़र डालेंगे तो देखने में आएगा कि युवा ज्यादातर लैला-मजनू और रोमियो-जूलियट की बातें करते हैं...वैसे भी वो इन सब उदाहरणों में नहीं उलझते क्यूंकि जब वो प्रेम करते हैं तो उनका केंद्र एकमात्र उनका प्रेम ही होता है !! फिर इस तरह के प्रेम की बातें करता कौन है ?? समाज में ज्यादातर कृष्ण-राधा को उदाहरण स्वरुप कौन प्रस्तुत करता है..??  हाँ...याद आया...सबसे ज्यादा हिम्मत तो प्रो.बटुकनाथ और उनकी शिष्या जुली ने दिखाई जो इस प्रेम के ज्वलंत उदाहरण हैं....बाकी सब चोरी छुपे करते हैं और केवल बातें ही करते है इस तरह के प्रेम की...! एक ऐसा प्रेम जिसके बारे में उन्होंने सुना है, कल्पना की है....जिसे वो जी न सके और उसे ही जीने का ख्वाब देखते हुए बाकी की जिंदगी बिता रहे हैं...!!  फिर खुद को समझाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है तो कृष्ण-राधा क्या बुरे हैं...! अब शादीशुदा स्त्री या पुरुष आज के दिन में छुपा के ही प्रेम करेंगे न ! तमाम तरह के बंधन हैं उनके ऊपर..पारिवारिक...सामाजिक..सामाजिक प्रतिष्ठा..और भी न जाने कितने !! अब इतनी बातों को दांव पे तो लगा नहीं सकते...बस अपने आप को justify करने का और खुद को gilt से निकालने का एक सरल...सहज...और उत्तम तरीका है कि इस प्रेम को राधा-कृष्ण से जोड़ दीजिए, अपने इस प्रेम को आध्यात्मिक दिखाइए,बताइए,खुद को समझाइये और खुद को हर बात से मुक्त कर लीजिए...!
                                             जैसा कि हम जानते हैं कि राधा और मीरा दोनों ही विवाहित थीं और अपने प्रेम और भक्ति ( मीरा के लिए ) के प्रति आस्था और समर्पण था उनमें..! कोई चोरी न थी...न ही परिवार के लोगों से छलावा....मीरा अपने साथ कृष्ण की मूर्ति ले कर ही ससुराल गयीं थीं और राधा घर के कामकाज के बीच में ही मुरली की धुन सुन कर चल देती थीं न कि चोरी-चुपके या किसी से छुपा के...!! आज जब राधा-मीरा के प्रेम की बात होते देखती हूँ लोगों के बीच तो समझ नहीं पाती हूँ कि अपने प्रति हम कितने सच्चे हैं...अपने प्रेम के प्रति कितने सच्चे हैं.....और अपने संबंधों के प्रति हम कितने सच्चे हैं....! हमें क्या हक है कि हम कृष्ण,मीरा और राधा से तुलना करें अपनी जबकि हमारी सच्चाई कुछ और ही है...उनसे एकदम भिन्न...! लेकिन हम भी मजबूर हैं अपने लिए तो उदाहरण भी एकदम ऊंची श्रेणी का ही चुनते हैं ! 
                                                      देखा जाए तो उस समय भी तो इन संबंधों को मान्यता नहीं दी जाती थी....न दी गयी थी....! इन प्रेम प्रसंगों में भी कई तरह की बातें आती हैं सामने...मीरा और राधा के साथ उनके घर वालों का सलूक (अगर ये बात सच है तो ) उदाहरण है इसका..!  फिर भी देखा जाए तो कृष्ण ने कभी भी चुपके से बांसुरी नहीं बजायी थी और न ही चोरी से रास ही रचाया था राधा और गोपियों के संग...उनकी मुरली की तान थी ही इतनी मोहक कि लोग खींचे चले जाते थे...क्या पशु-पक्षी क्या इंसान...!! अब इसमें बेचारी राधा और गोपियां बेबात बदनाम हो गयीं...!! और अगर ये बात सच है तो उस समय जो हाल उन सबका हुआ था अगर आज भी वैसी ही परिस्थिति हो जाये तो आप भी वैसा ही करेंगे शायद!
                                                            अब आप कल्पना कर के देखिये कि आपका पति या आपकी पत्नी आपको घर में छोड़ कर किसी अन्य पुरुष या स्त्री के साथ नृत्य समारोह में जाए और रात में देर से घर आये तो क्या आप उसे राधा या कृष्ण मान कर घर में बड़े प्रेम से आने देंगे...और कितने दिन तक ?? अब आप कहेंगे कि उनकी बात अलग थी...उनके प्रेम का स्वरुप अलग था लेकिन आप कैसे अपने पति या पत्नी के प्रेम के स्वरुप को पहचानेंगे...क्या आप में भी वो दिव्य दृष्टि है जिससे कि आप उनके प्रेम को सही मान कर स्वीकारे या गलत मान कर नकार दें...! यदि आपकी पत्नी या पति अपने पहले प्रेमी की फोटो लेकर के आपके बेडरूम में लगा दे और सारा समय उसी में लीन रहे तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी.....!! अब आप ही सोचिये कि आज अगर सचमुच में भी आकर कृष्ण बांसुरी बजाएं और आपकी पत्नी अभिभूत हो कर सब काम-धाम छोड़ कर रोज रासलीला के लिए चली जाए घर से...और लौट के जब आये तो आप उसे बड़े प्रेम से स्वागत करेंगे.....!....फिर ऐसी परिस्थिति में क्यूँ आज प्रेमी से मिल कर लौटी पत्नी आप को राधा नहीं लगेगी...या लगती है...!
                                   भले ही प्रेम का स्वरुप मान कर आप राधा कृष्ण की पूजा करें...लेकिन सही मानिये तो ये आपसे भी संभव नहीं होगा....! अब ऐसे में फिर कोई उपाय नहीं बचता कि इसतरह के प्रेम को  समाज से...घर वालों से छुपाया जाए क्यूँ कि इसके सार्वजानिक होने से आपकी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा पर आंच आती है...और यहीं पर हम राधा-कृष्ण का उदाहरण देते नज़र आते हैं क्यूँ कि इस तरह के प्रेम के लिए हमें उनसे बेहतर उदाहरण नहीं मिलता जिससे हम अपनी नज़र में ऊँचे बने रहें और समाज की नज़र में साफ़-सुथरे...! आज हम, हमारी परिस्थिति और हमारी मन:स्थिति उनसे सर्वथा और सर्वदा भिन्न है फिर भी बड़ी आसानी से एक तरह से हम अपने आप को justify कर लेते हैं और gilt से भी बच जाते हैं....लेकिन जिन कृष्ण,राधा और मीरा की बात करते हम नहीं आघाते उनकी तरह के प्रेम से उतनी ही दूर होते जाते हैं क्यूँ कि हममें उनकी तरह समाज और परिवार की अवहेलना सहने की शक्ति ही नहीं होती है...! बड़े मज़े की बात तो यह है कि किसी दूसरे के प्रेम को देखने में हमारी यही उदार सोच संकीर्ण हो जाती है ! असल में हम अपने अलावा किसी और में कृष्ण,राधा और मीरा देखने की दृष्टि ही नहीं पा सके....संकुचित दृष्टि और सीमित सोच..! क्यूँ नहीं राह चलते एक नटखट बालक को ( जिसे हम बदमाश कहते हैं ) किसी बालिका ( गोपिका ) का दुपट्टा खींचने पर कृष्ण की उपाधि दे पाते...पास पड़ोस की आंटी जी के यहाँ से अपनापन में कुछ भी उठा लेने पर एक बच्चे में ( जिसे हम असभ्य कहते हैं ) बाल कृष्ण का रूप नहीं देख पाते....अपने प्रेमी से मिल कर लौटी अपनी ही पत्नी में ( जिसे हम बदचलन कहते हैं ) राधा सा निश्छल प्रेम का स्वरुप नहीं देख पाते...???  दरअसल हमने अपने जीवन में दोहरे मापदंड बनाये हैं...अपने लिए कुछ और और दूसरों के लिए कुछ और ...!! लेकिन जब इसी तरह की परिस्थिति हमारे अपने सामने आये तो मीरा,राधा-कृष्ण ने अपने प्रेम के सारे दरवाजे हमारे लिए खुले छोड़ दिए हैं...!

                                                                  
                                           प्रेम के उदाहणार्थ हम बात करते हैं कृष्ण,राधा और मीरा की....!! हमें मालूम है कि इस संसार में मीरा की भक्ति सर्वोपरि है...एक ऐसी भक्ति जिसमें अपने आराध्य के लिए सर्वस्व समर्पण की उद्दाम शक्ति और कामना थी....जिन्हें कृष्ण भक्ति और प्रेम के आगे कुछ भी नहीं सूझा...न परिवार...न संसार....!     कहीं कोई छुपाव-दुराव नहीं था...न परिवार से...न ही संसार से ! एक निश्छल...स्वच्छ...निर्बाध भक्ति और प्रेम...! कितने कष्ट उठाये मीरा ने कृष्ण-भक्ति और प्रेम ( हम ईश्वर से भी प्रेम ही करते हैं ) के लिए...ये किसी से छुपा नहीं है...! आज किसके पास है इस तरह का प्रेम...किसके पास ऐसी भक्ति..??  राधा और कृष्ण....प्रेम की भावना....एक चेतना स्वरुप...एक दूसरे में समाहित...! प्रेम की वह धारा जो बाहर बहते-बहते अंतर्मुखी हो जाए...जिससे इंसान पूर्णत: प्रेम स्वरुप हो जाए...वह राधा....जो हर इंसान के अंदर है...थोड़ा कम...थोड़ा ज्यादा....लेकिन है सबमें...!!  बस एक इंसान ही है जो इसका भी वर्गीकरण कर लेता है....! 

  
                                                                                                                                                                                                                          सबसे ज्यादा द्विविधा तब हो जाती है जब हम उन्हें एक चरित्र समझ कर अपनी ही परिस्थिति, अपनी मन:स्थिति में उनका समावेश करने लगते हैं....अब खुद को आप जब कृष्ण या राधा या मीरा मानने लगिये तो सोच लीजिए कि क्या हाल होगा....! पहले उनके जैसी सच्चाई तो हम उतारे अपने जीवन में, अपने संबंधों में...फिर बात करें तो उचित होगा ! उम्मीद तो हमें अपने हर संबद्ध से नैसर्गिक प्रेम की ही होती है परन्तु जब संबंधों की नींव ही झूठ,छलावे और चोरी के आधार पर रखी गयी हो तो उनमें कृष्ण सा प्रेम कहाँ और राधा सा समर्पण कहाँ...या मीरा सी भक्ति कहाँ.....???




बुधवार, 29 अगस्त 2012

कुछ अनकहा सा......





कुछ  अनकहा  सा .....

कई बार  मन में
शब्द उमड़-घुमड़ के
जुड़ते से चले जाते हैं
अपने आप ही,
और अनजाना सा अनमना सा 
कुछ बन जाता है अपने आप ही..!
मन चाहता है कि उतार दे
मन की बातों को कहीं...
कभी लिख कर..
या फिर कम से कम
किसी से share ही कर लें....!
लेकिन न वो पन्ने मिलते हैं
जिस पर हम लिख सकें...
और न वो शख्स ही....
जिससे हम मन की बातें कह सकें...
और सब अनलिखा,अनकहा सा
बहुत कुछ रह जाता है 
हमारे साथ ही....!! 



गुरुवार, 23 अगस्त 2012

गाफ़िल ......






                                             प्यार पे उज़्र तो रहता है यूँ जमाने को  
                                    ये अलग बात है ये आज हुआ है तुमको !

                                    साथ चलते हुए तुम यूँ कहीं मुड़ जाओगे 
                                    हमारे इश्क से भी तुम यूँ मुकर जाओगे !

                                    सुकून,चैन मेरा खो गया मिल कर तुझसे 
                                    वो मेरा इश्क था मासूम जो किया तुझसे !

                                    मगर कभी न तुझे मुझपे एतबार रहा 
                                    तेरा वजूद  ही  हरदम यूँ  बेकरार  रहा !

                                    तलाश खुद की ही तुझको रही महफ़िल महफ़िल 
                                    मैं  हुई  तुझसे.....मगर तू  हुआ  खुद से गाफ़िल !






!

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

मोम ......









                                  मोम को न जाने क्यूँ 
                            पत्थर बनाने में लगे रहते हैं लोग 
                               और फिर उम्मीद करते हैं 
                                  कि वो वापस मोम हो जाये....








शनिवार, 18 अगस्त 2012

जन्मदिन की मुबारकबाद गुलज़ार साहेब...


                                               

 


ओ मेरे यार  जुलाहे....
मुझको भी सिखला देते तुम 
शब्दों का बुनना ताना बाना... 
तो मैं भी कुछ कुछ बुन लेती 
तेरे शब्दों से ही मैं  भी   
कोई सुन्दर जाल पिरो लेती !
कुछ कह लेती... 
कुछ सुन लेती !
या......
सुन सुन के तेरी बातों को 
कुछ चुन कर तेरे शब्दों को
कुछ मोती मेरे सपनों  के 
फिर गूंथ नई माला कोई...
बालों में अपने... 
या फिर..
तेरे दरवाजे पे सजा देती !!
ओ मेरे यार जुलाहे....  
सिखला देते कुछ गुन अपना
शब्दों के जाल पिरोना,
तितली बन कर शब्दों से..
रंग चुरा लेना,
बादल बन के सागर से..
बूँद चुरा लेना,
भंवरा बन के..
तेरे ही होठों से चुपके से 
कोई गीत चुरा लेना
ओ मेरे यार जुलाहे .....
सिखला देते कुछ आज मुझे...
तो मैं भी कुछ कुछ बुन लेती..
कुछ देर सांस ले लेती !
कुछ देर और जी लेती !!






गुरुवार, 16 अगस्त 2012

क़त्ल........



क़त्ल........

कई बार हमारे ज़ज्बातों का 
क़त्ल हो जाता है किसी के हाथों 
और न हम इलज़ाम दे पाते हैं,
न कातिल को ही इल्म होता है
कि उसने क़त्ल किया है,
और कई बार मालूम होने पर भी 
ज़िम्मेदारी लेने को तैयार भी नहीं होता है...
क्यूँ कि वो ज़ज्बात हमारे होते हैं..
उसके नहीं....!
हाँ,अपने ज़ज्बातों का ढिंढोरा 
वो सारे जहाँ में ज़रूर बजा आता है...!!
और ज़ज्बातों का क्या है......
वो खामोश ही रहते हैं....
हाँ,मरते वक़्त ज़रूर 
हमें हैरत भरी नज़र से देखते हैं 
कि हमने ऐसा होने क्यूँ दिया...!!




शनिवार, 11 अगस्त 2012

जीवन....एक शतरंज....






शतरंज का खेल 
भले न आता हो तुम्हें...
लेकिन शब्दों से शतरंज 
तुम बखूबी खेल लेते हो ,
और सामने वाले को 
सीधे-सीधे मात भी दे देते हो ...!
न जाने कैसे जान जाते हो तुम 
कि कौन सा शब्द चलने से 
कौन धराशायी हो जायेगा....!
और यदि इतने पर भी न हुआ 
तो तुम्हारे पास और भी चालें हैं...!
हर जिंदगी में भावनाओं की,
संवेदनाओं की,धन की अहमियत से भी 
अनभिज्ञ नहीं हो तुम....! 
अपनी चालों में इनका इस्तेमाल 
तुम बखूबी कर लेते हो....!
और सामने वाले को....
इसका पता भी नहीं चल पाता !
लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं 
जिन्हें तुम्हारी इन चालों का भान है !
उनके लिए जीवन की 
छोटी छोटी बातें,
छोटी-छोटो सच्चाइयाँ ही 
जीने के लिए मायने देती हैं !
बड़ी बड़ी बातों की ये चालें 
भले ही तुम्हारे मन को संतोष दे दें,
तुम्हारे अहं को..... 
जीत के एहसास से भर दें...!
लेकिन तुम भी ये 
अच्छी तरह जानते हो
कि तुम्हारे खेलने की प्रवत्ति का 
उन्हें भी आभास है.......!
इसलिए उन लोगों के सामने तुम 
हमेशा छोटे ही नज़र आओगे
क्यूँ कि.....
वो तुम्हें जानते हुए भी
तुम्हारी इन चालों से 
खुद को तुम्हारे सामने 
हारा हुआ दिखाते हैं...!!




शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

कृष्ण मेरी दृष्टि में.......

एक मित्र ही आपको आपकी क्षमता का ज्ञान करा सकता है....सखा भाव से ! 
क्षमता को किसी अनुपात में न आंकें...! 
संगत का असर शायद इसे ही कहते हैं...!
मित्र विमलेन्केदु के लेख "संभवामि युगे युगे" ने यह संभव कर दिखाया...!







 कृष्ण मेरी दृष्टि में........

                        अगर कृष्ण को एक चरित्र के रूप में भी देखें तो हम देखते हैं कि हर इंसान उनसे कुछ न कुछ पा ही लेता है...बल्कि देखा जाए तो कुछ भी करके आसानी से उसके गिल्ट से बाहर आने का कृष्ण एक सरल ज़रिया हैं...! कृष्ण का झूठ बोलना...कृष्ण का मैदान छोड़ के भाग जाना...चीर हरण,राधा और गोपियों संग रास रचाना...बस यही उत्तम और सरल उदाहरण इंसान ले पाता है अपनी छोटी बुद्धि से...क्यूँ कि उसे अपने चरित्र में ये सब आसानी से ढूंढें मिल जाता है...इन सब उदाहरणों के साथ कृष्ण बांसुरी बजाते हमारे बीच में प्रस्तुत हैं....! etxra marital affair का कृष्ण जीता-जागता उदाहरण हैं जिससे किसी भी इंसान को ये सम्बन्ध बनाने में न संकोच होता है और न ही किसी तरह का गिल्ट....लेकिन जब इसका परिणाम नज़र आता है तो उसकी जिम्मेदारी हम लेने से मुकर जाते हैं और उँगलियाँ यत्र-तत्र उठ जाती हैं...जबकि कृष्ण ऐसा करते कभी भी दिखाई नहीं देते...!

                              अगर पात्र के रूप में देखें तो कृष्ण का पूरा जीवन विषम परिस्थितियों में गुज़रा...और हर स्थिति में उन्होंने विवेक और सूझबूझ का अतिउत्तम उदहारण प्रस्तुत किया है...और हम इंसानों को जीवन के कई उदाहरण पहले से ही दे दिए हैं कि कम से कम हम उन सब परिस्थितियों से न गुजरें या गुजरें भी तो विवेक और बुद्धि से उसका आसानी से हल निकाल सकें....लेकिन हम भी इंसान ही ठहरे...!इसलिए खुद को शरीर से संबधित क्रिया-कलापों से ही कृष्ण का उदाहरण जोड़ पाते हैं...!


                   मेरे लिए ईश्वर वह शक्ति है जो अपने विभिन्न रूप में हमारे बीच में हर समय उपस्थित है...कभी हमारे सुख में,दुःख में,मनोरंजन में और उत्सव में भी और इसका सारा श्रेय हमारे ऋषियों-मुनियों,पूर्वजों या जिनको भी श्रेय दें,जाता है जिन्होंने इस शक्ति को एक नहीं कई स्वरुप में हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है जिससे इंसान अपने आप से जोड़ पाता है...जो हमें इस जीवन की दुरूह परिस्थितियों में मुस्कुराना सिखाती है..एक आशा की किरण बन के साथ साथ चलती है....कभी देवी-देवता या भगवान के रूप में और कभी गीता,रामायण या वेद-पुराण के रूप में...समाज का हर वर्ग कहीं न कहीं इनमें से कम से कम एक से तो जुड़ा हुआ है ही !

                             कृष्ण कभी थे या नहीं....हम ये तो नहीं जानते....लेकिन उन्हें हम पढ़ते हैं,महसूस करते हैं स्वयं में और शायद इसीलिए देख भी पाते हैं खुली और बंद आँखों से..! कृष्ण हर इंसान (स्त्री/पुरुष) में पूरी तरह मौजूद है....प्रेम और विश्वास के रूप में....!! चारित्रिक रूप में देखें तो अक्सर लोग उन्हें बस प्रेम में ही बाँध देते हैं... विश्वास की कहीं और कभी चर्चा होते कम ही दिखती है....जबकि मेरी दृष्टि में कृष्ण सबसे ज्यादा विश्वस्त रूप में आते हैं...फिर चाहे वो बाल सखा हों,राधा हो या गोपियाँ,रुक्मिणी हो या अनगिनत रानियाँ,पांडव हों या द्रौपदी,कुंती हो या भीष्म,उद्धव हो या सुदामा आदि आदि....एक सार्वभौमिक प्रेम और विश्वास का जीता-जागता उदाहरण हैं खुद कृष्ण.....! अनगिनत उदाहरण हैं हमारे सामने....जहाँ कृष्ण अपनी मुरलिया थामें मुस्कुराते खड़े हैं...! उनसे उन्हीं के किसी रूप से हम कुछ भी आसानी से पा ले रहे हैं....और ये इंसान के बस की बात नहीं है क्यूँ कि इतने सारे aspects किसी एक इंसान में होना possible नहीं है...! कृष्ण का प्रत्येक रूप समाज में उदाहरण के रूप में है...कि इंसानों देखो ऐसा भी होता है...होता आया है और हो सकता है जीवन में...परिस्थितियां हमारे वश में नहीं हैं...स्व में स्थित हो,अपने स्वरुप को पहचानों,कर्ता भाव मिटाओ,अपनी बुद्धि लगाओ,विवेक का इस्तेमाल करो और हर परिस्थिति से बाहर निकलो...लेकिन हम केवल चरित्र में ही उलझ के रह जाते हैं और उनके चरित्र के उदाहरणों का इस्तेमाल उसमें फंस जाने के बाद करते हैं जबकि कृष्ण हमें पहले ही सचेत करते हैं !

                            कृष्ण चरित्र नहीं एक चेतना हैं...एक जीती-जागती समग्र चेतना...एक ऐसी चेतना जो हर इंसान (स्त्री/पुरुष) में पग-पग पर किसी न किसी रूप में मौजूद है....तभी हम खुद को जोड़ पाते हैं उनसे...कभी प्रेम दिखाते हैं तो कभी गुस्सा करते हैं,कभी चिरौरी करते हैं तो खुद रूठ भी जाते हैं,उन्हें डराते-धमकाते हैं,उन्हीं से लड़ते-झगड़ते हैं...क्या-क्या नहीं करते उनके साथ फिर भी और वो बेचारे मौन हो कर सब मान जाते हैं ! उन्हें हम किसी रूप में भी पा सकते हैं....माँ से आरम्भ हो कर कृष्ण का प्रेम जीवन के हर परिपेक्ष में नज़र आता है....प्रेम को जितने भी रूप में दर्शाया जा सकता है....कृष्ण अपनी मोहक मुस्कान के साथ उस जगह उपस्थित हैं...! अपने व्यक्तित्व में से अपने अनुरूप स्वरुप का चुनाव करने का कृष्ण खुद हमें अवसर प्रदान करते हैं....तभी तो वासुदेव-देवकी,नन्द-यशोदा राधा-मीरा,गोप-गोपियाँ,सुदामा-उद्धव,कुंती-द्रौपदी,अर्जुन और हम सब उनके मोहपाश से दूर नहीं रह पाते..!

                         कृष्ण रुपी चेतना हमारे जीवन में वात्सल्य,प्रेमी,सखा,बन्धु-बांधव, शिक्षक, इंसान,और भगवान भी....हर रूप में प्रस्तुत है...!! जीवन का उत्सव है कृष्ण,प्रेम की पराकाष्ठा हैं कृष्ण,मित्रता का उत्कृष्ट उदाहरण हैं कृष्ण,गुरु का गंभीर ज्ञान हैं कृष्ण... और शायद और भी बहुत कुछ !! जहाँ तक सोचा जा सकता है इंसान के स्वरुप को....भगवान की संभावनाओं को.....हमारे मुरली वाले वहीँ पर मोहक मुस्कान लिए प्रकट हो जाते हैं....!!

                         विमलेन्दु....आपको धन्यवाद दूँगी...सोचना और बात है और लिखना और...! इतना आपने लिखवा लिया मुझसे...शायद ही मेरी लेखनी यहाँ तक पहुँच पाती......आपकी वजह से ये संभव हो पाया है.....!

जय श्री कृष्ण ...!!!



शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

मेरे पास.....





रात की खामोशियाँ बेचैन कर देती हैं जब 
बेखुदी में यूँ ख्याल बन बन के आ जाते हो तुम....!

तेरे आने का नहीं अब मुझको रहता इंतज़ार
मेरे ख़्वाबों में कभी भी यूँ चले आते हो तुम....!

बाद मुद्दत के कभी गर मिल गए हम तुम कहीं
मैं तुम्हें पहचान लूंगी कैसे पहचानोगे तुम....!

है अनोखा तुझसे रिश्ता कोई ये जानेगा क्या
साथ न हो कर भी मेरे पास ही रहते हो तुम....!