बुधवार, 24 अगस्त 2011

दिल.....











जो आँखों को दिखता हैं...
जो कानों को सुनायी देता है...
कभी-कभी झूठा होता है !
दिल क्या समझता है...
क्या महसूस करता है...
कोई नहीं कह सकता है !!



रविवार, 21 अगस्त 2011

मोहरे ........




कुछ लोग जिंदगी को शतरंज की तरह खेलते हैं
जीवन की हर परिस्थिति और घटना को,
यहाँ तक की अपनी भावनाओं और एहसासों को
और कभी भाग्य और भगवान् को भी  
गोटियों की जगह मनचाहे रूप से रखते हैं.
कभी-कभी.....
अपने रिश्तों और संबंधों को भी
कभी प्यादे तो कभी सैनिक         
और कभी घोड़े और वजीर बना डालते हैं,
लेकिन चालें राजा की तरह खुद  चलते हैं !!
सारा खेल उनका ...
सारी चालें उनकी सोची-समझी,
फिर अचानक क्या हो गया....??
गर सोची-समझी चालें  
उनके हिसाब से सही   बैठ पाईं तो....
तो दूसरा दोषी कौन और क्यों ??
सारे प्यादे,घोड़े,सैनिक   
सब के सब तो उसी के थे ....
उसी ने अपनी मनचाही जगह पर
फिट भी किये थे,
और तो और ...
पासा भी तो उसने अपने हिसाब से फेंका था,
बाकी दूसरा खिलाड़ी तो मूक दर्शक ही था .
दोनों  ही चालें खुद उसकी थीं ...
सोची ,समझी,“तयशुदा चालें”....
फिर सारा दोष दूसरों पर क्यूँ डालें ?
एक साथ सारी  ही चालें गलत हो ,
वह भी उसी के खेल में
तो खुद को देखे  
और खुद  आंकलन करे !!
खेल में गोटियाँ स्वयं नहीं चलती
चलाई  जाती  हैं.
लेकिन जब इंसान हो गोटियों की जगह तो
कभी  कभी तो जीवंत हो उठेगा
तो दोष बादशाहत का है
जिसने इंसानी रिश्तों को
शामिल किया अपने खेल में  
या उन प्यादों और सैनिकों का है?
सब के सब एक साथ 
गलत जगह पर खुद से नहीं जा बैठते हैं
 ही ये उनकी सोची-समझी चाल है!
ये तो खेलने वाला जाने  
जो अपनी बादशाहियत को बचाने के लिए
कुछ भी करने को तैयार है
या  फिर  भाग्य  का  खेल   मान  कर
हर  किसी   से  किनारा  करने  को  तैयार  है !!