शनिवार, 16 अप्रैल 2011

प्रेम.....

 
 




प्रेम ---

स्त्री......
खुद को  
राधा और मीरा
समझती है,
पूजा के फूल
अपने मंदिर के

देवता को छोड़कर
दूसरे मंदिर में
चढ़ा आती है !




प्रेम--

पुरुष....
खुद को 
कृष्ण समझता है,
जिन्दगी में 
चाहत तो  रखता है
राधाओं और गोपियों की
लेकिन...
पत्नी 
सीता की तरह ही चाहता है !!


 

12 टिप्‍पणियां:

  1. दोनों क्षणिकाओं के माध्यम से आपने बहुत सही कटाक्ष किया है.

    सादर

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  2. वंदनाजी...
    आपको अपने इर्द-गिर्द इस तरह के ढेरों कृष्ण,राधाएं और मीराएँ मिल जायेंगी और उनके अपने-अपने logic होंगें....
    अपनी व्यथाएं-कथाएं होंगी सुनाने बताने के लिए !
    और हम सबकी जिन्दगी में भी ऐसी घटनाएं होती रहती हैं..
    आप उनसे सहमत भी हो सकती हैं और नहीं भी..!
    हर कोई अपनी सोच के लिए जिम्मेदार है...!
    लेकिन जब बात दूसरे पक्ष की आती है तो विचार संकुचित और संकीर्ण हो जाते हैं...!!

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  3. बेहतरीन, सुविधा के लिये चरित्रों का एक ही पक्ष ले लिया जाता है।

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  4. दोनों क्षणिकाओं के माध्यम से गज़ब का कटाक्ष किया है।

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  5. सही चित्रण किया है आपने.
    बहुत खूब.

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  6. बहुत अच्छी पोस्ट, शुभकामना, मैं सभी धर्मो को सम्मान देता हूँ, जिस तरह मुसलमान अपने धर्म के प्रति समर्पित है, उसी तरह हिन्दू भी समर्पित है. यदि समाज में प्रेम,आपसी सौहार्द और समरसता लानी है तो सभी के भावनाओ का सम्मान करना होगा.
    यहाँ भी आये. और अपने विचार अवश्य व्यक्त करें ताकि धार्मिक विवादों पर अंकुश लगाया जा सके.,
    मुस्लिम ब्लोगर यह बताएं क्या यह पोस्ट हिन्दुओ के भावनाओ पर कुठाराघात नहीं करती.

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  7. वाह......दो भिन्न द्रष्टिकोण.....कितनी सुन्दरता से बयान किये हैं आपने.....सुभानाल्लाह....

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  8. कई प्रश्नों का उत्तर मांगती है रचना , अत्यंत भावपूर्ण, बधाई....

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